Tuesday, August 6, 2019

बाबू देवी लाल जी

बाबू देवी लाल जी 
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आज देवी लाल जी बहुत ही खुश हैं, उनकी खुशी का ठिकाना नहीं है हो भी क्यों न, खुद दफ्तर में चपरासी हैं लेकिन लड़का बड़ा अधिकारी बन गया। आखिर एक बाप को चाहिए ही क्या? यही न, कि सन्तान उससे दो कदम आगे निकल जाये। वैसे भी देवी लाल ने जी बेटे रवि के लिए त्याग भी बहुत किया है। उसके पढ़ने से लेकर खेलने तक का पूरा ध्यान देते थे। सुबह चार बजे रवि को पढ़ने के लिए जगाते तो खुद भी जाग जाते थे, सोते नहीं थे। हालाँकि खुद तो दफ्तर में चपरासी हैं और अपनी कर्त्तव्य परायणता, स्वभाव और मेहनत से पूरे दफ्तर में मशहूर हैं, साथ सभी के सम्मानीय हैं। सभी उन्हें, "देवीलाल जी" कहतें हैं, आजाद विचारों के संकोची स्वभाव वाले देवी लाल जी का एक ही सपना था, रवि को अधिकारी बनाने का, वह भी पूरा हो गया।
अब तो रवि की रिश्ते भी आ रहें हैं अच्छे-अच्छे घरों से, जिन्हें देखकर वे घबड़ाने लगते, "कितने बड़े लोग हैं, कैसे बात करूँ? क्या बात करूँ? "इसलिए रवि खुद ही बात करता है। खैर उसकी शादी भी अच्छे घर की अच्छी लड़की से हो गयी। बहू क्या है, लक्ष्मी-सरस्वती का मिला-जुला रूप है। बहुत ही सुघड़ और परिवार को साथ लेकर चलने वाली, सास-ससुर को ऐसे रखती जैसे उसके माता-पिता हों, समय से नाश्ता खाना-पीना, सुख-दुःख में एक पाँव पर खड़ी रहती। देवी लाल और उनकी पत्नी "सुमित्रा" तो बहू "रश्मि" पर निहाल रहते, अब तो सुमित्रा की इच्छा होती है कि पोते का मुंह देख लेती तो यह जन्म सफल हो जाता।
दिन खुशी-खुशी बीत रहे थे तभी परिवार पर वज्रपात हो गया सारे सपने चूर-चूर हो गए। एक दुर्घटना में रवि की मौत हो गयी। पूरे परिवार में कोहराम मच गया। कुछ दिनों के बाद सुमित्रा के दिमाग में घुस गया कि रवि की मौत का कारण रश्मि है। वह बात-बात पर उसे तानें देने लगीं। घर से निकल जाने को कहनें लगीं। रश्मि बेचारी चुपचाप सब देखती सुनती लेकिन जवाब नहीं देती थी। चुप बिल्कुल चुप, जैसे बुत हो गई थी। उसके पिताजी उसे लेने आये थे उसने मना कर दिया कि, "रवि नहीं रहें तो इसका मतलब यह तो नहीं इनसे मेरा रिश्ता खत्म हो गया, अब यही मेरे माँ-बाप हैं।" देवी लाल कहते, "अब रश्मि ही  हमारी सबकुछ है मेरा बेटा, मेरी बहू सब कुछ।" थक हार कर रश्मि के पिता वापस चले गए।
देवी लाल ने पत्नी को समझाना शुरू किया कि, "जो हुआ सो हुआ, इसमें किसी का दोष नहीं, ऊपर वाले को यही मंजूर था।" काफी मेहनत के बाद, वे सुमित्रा को समझाने में सफल रहे। सुमित्रा ने भी माना रवि की मौत में बहू का कोई दोष नहीं। एक दिन देवीलाल जी ने सोचा, क्यों न रश्मि की शादी कर दूं, अपनी बेटी बनाकर उम्र ही क्या है उसकी जवान है, सुन्दर है, केवल विधवा ही तो है। आजकल जमाना बहुत आगे है बहुत लड़के मिल जायेंगे।
बस उन्होंने लड़का खोजना शुरू कर दिया, सुमित्रा को बताया वह राजी हो गई। रश्मि को समझाना बहुत टेढ़ी खीर थी लेकिन उसमें भी सफल हो गए। काफी दौड़े-धूप के शादी तय कर पाये। दान-दहेज और शादी में खर्च भी जी भर कर किया बिल्कुल अपनी ही बेटी की शादी की तरह।
अब जब भी रश्मि मायके आती पहले देवी लाल के घर आती कहती है, "यह मेरा असली मायका है, आप लोग मेरे असली माँ-बाप हैं।"और जब उसके दो साल के बेटे को देवीलाल गोद में लेते तो वह उनकी घनी मोटी मूंछे खींचता तब वे हो-हो कर हँसने लगते तो पूरा परिवार एक असीम आनंद का अनुभव करने लगता।

आज के लिए इतना ही...धन्यवाद
अगर आपको यह पोस्ट अच्छी लगी हो तो कृपया कमेंट और शेयर करें... सुधीर श्रीवास्तव

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