Monday, September 30, 2019

                 ख्वाहिश
             ---------------
ख्वाहिशें लेकर चले थे प्यार के समंदर में,
न इधर के रहे न उधर के रहे,
डूब रहें हैं हम बीच दरिया मे,
और,
दोनों किनारे दूर दिखतें हैं।
उनको पास लाना संभव नहीं,
उनसे दूर रहना भी संभव नहीं,
करूँ मैं क्या करूँ कुछ समझ में आता नहीं,
और,
वे बेफिक्र हमसे लगतें हैं।
बहुत समझातें हैं खुद को हम,
लेकिन खुद समझ न पातें हैं,
बस,
उनके प्यार के सागर में हम,
गोतें लगातें जातें हैं।।
         कभी-कभी
        ---------------
कभी-कभी उनमें इस कदर खो जातें हैं,
न तन का होश रहता है,
न मन का होश रहता है,
लाख भटकाऊँ दिल को,
पर दिल है कि,
मानता ही नहीं है,
भटक-भटक कर उन पर ही आ जाता है।
ख्यालों में वही और वही रहतें हैं,
जब कभी कुछ सोचने लगता हूॅ,
हर सोच उन्हीं पर आ टिकती है,
दिल से मैंने कहा,
क्यों उन पर आ टिकता है,
दिल कहता है हरदम,
आदत से मजबूर हूॅ।

एक औरत ऐसी भी

एक औरत ऐसी भी
------------------------------

Saas Bahu

वैसे तो औरतें जैसी भी हों, सीधी, समझदार, विनम्र, सहनशील आदि-आदि। लेकिन अधिकांशतः औरतों में एक आदत बुरी ही पाई जाती है, वे बातूनी बहुत होंती हैं और अपनी सास की शिकायत तो बढ़-चढ़ कर करतीं हैं। अधिकांश औरतें शादी के बाद स्वयं को और अपने मायके वालों को ससुराल पक्ष की अपेक्षा अच्छा समझतीं हैं।ससुराल पक्ष की हर छोटी-बड़ी शिकायत, जो टाली जा सकतीं हैं, किसी से कहें या न कहें अपनी माँ से जरूर कहतीं हैं।माँ भी उनकी हाँ में हाँ मिलाकर उनको ससुराल पक्ष के खिलाफ करतीं हैं।
लेकिन विमला जी ठीक इसके विपरीत हैं। अपनी सास या ससुराल पक्ष की कोई भी शिकायत किसी से नहीं करतीं हैं। यहाँ तक कि अपनी माँ या पति से भी नहीं।यदि कोई शिकायत रहती भी है, तो उसे उम्र का तकाजा मानकर टाल जातीं हैं। उनके दिमाग में यह बात हमेशा ही गूँजती रहती है कि वह इस घर की बहू हैं तो सास की ही वजह से हैं। न सास होतीं, न पति पैदा होता, यदि कोई दूसरी औरत अपने ससुराल पक्ष की शिकायत उनसे करती है तो यह कहकर चुप करा देतीं हैं कि,"यह तुम्हारी समस्या है, मैं सुनकर क्या करूँगी।"
इसीलिये वे जहाँ मुहल्ले के बड़े-बुजुर्ग की निगाह में भली रहतीं हैं, वहीं पुरूषों की पसंदीदा औरत हैं तथा औरतों की नजर में खटकतीं रहतीं हैं। लेकिन विमला जी इन सब की परवाह न करते हुए अपनी सास की सेवा करतीं हैं तथा ससुराल पर जान देती हैं। उनके एक लड़का और एक लड़की हैं। दोनों पर इसका असर पड़ता गया।
लड़की की शादी हो गई है। वह भी माँ से सीखे संस्कारों के कारण ही अपने ससुराल पक्ष की बड़ी कद्र करती है। यदि कभी भूल से भी वह विमला जी से कोई शिकायत कर देती है तो विमला जी उसकी पूरी बात सुनकर उसे समझाकर चुप करा देंती हैं ।ऐसा जतातीं हैं कि उसकी बातों को गौर से नहीं सुना। लेकिन शिकायत का हल शालीनता से खोज ही लेंती हैं।अधिकतर लड़की ही बात का बतंगड़ बनाते दिखती है, जिस पर वह बिना मोह-माया के लड़की को डाँट देती हैं। अब तो हालात यह है कि लड़की ससुराल पक्ष की कोई भी शिकायत नहीं करती।
समय पर उन्होंने लड़के की भी शादी कर दी। चूँकि लड़का जो देखता आया है अपनी पत्नी को वही सिखाता है। एक बार विमला जी बहुत बीमार पड़ गयीं। उधर उनकी लड़की की सास पहले से ही बीमार चल रहीं थीं। लड़की विमला जी मिलना चाहती है। लेकिन विमला जी की बहू ने यह कहकर उसे रोक दिया कि, "बीबी जी, आप अपनी सास को देखिये मैं अपनी सास को देख रहीं हूॅ।माँ जी इतना नहीं बीमार हैंं कि उन्हें देखने आपको आना पड़े।हाँ, जब ऐसी हालत आयेगी आपको खबर कर दिया जाएगा।"
विमला जी ने यह बातें सुन ली अपनी बहू को गले लगा कर कहा,"मुझे ऐसी ही बहू चाहिए थी, मैं बहुत खुश किस्मत हूॅ।"

आज के लिए इतना ही...धन्यवाद
अगर आपको यह पोस्ट अच्छी लगी हो तो कृपया कमेंट और शेयर करें... सुधीर श्रीवास्तव

ऐसे ही और कहानियां पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करे



Sunday, September 29, 2019

                 बच्चों को संस्कार दें अहंकार नहीं
           ------------------------------------------------
राकेश धर त्रिपाठी बजी एक धनाढ्य व्यक्ति हैं।लक्ष्मी उन पर कृपा बनाये रखती है सो घर में सबकुछ है।स्वयं,पत्नी कामना,पुत्र वैभव और पुत्री लाली यही उनका परिवार है।त्रिपाठी जी के माता-पिता भी साथ ही रहते हैं।त्रिपाठी जी माँ-बाप को जी-जान से चाहते हैं।माँ-बाप के भक्त हैं।पत्नी कामना उन्हें इसीलिये श्रवण कुमार कहती है।अब आप या मैं खुद इसे पत्नी का ताना ही कह सकतें हैं।लेकिन त्रिपाठी जी पर पत्नी के इस ताने का कोई असर नहीं पड़ता है।ऐसा नहीं कामना सास-ससुर का अपमान करती है।ध्यान बहुत रखती है उनका।
दोनों बच्चे बड़े होते गये।कमाने भी लगे।वैभव डाॅक्टर है तो लाली इंजीनियर।लेकिन अहंकार तो दूर-दूर तक नहीं है दोनों में।ठीक पिता की तरह विनम्र हैं दोनों।सीनियर्स हो जूनियर्स सभी से प्रेम से ही बोलते हैं।त्रिपाठी जी और उनकी पत्नी अधेड़ होने लगे सो वैभव की शादी करनी चाही।लेकिन वैभव तैयार न था।कहता,"पहले लाली की शादी करिये।"
आखिर हार कर त्रिपाठी जी ने  लाली की शादी कर डाली। इत्तेफाक कहिए या कुछ भी।कामना और लाली की सास को एक बार एक ही साथ दिल का दौरा पड़ा।लाली असमंजस में थी किसे देखूँ माँ को या सास को।दोनों को सेवा की जरूरत थी।त्रिपाठी जी और वैभव से पूछा तो एक ही उत्तर मिला,"तुम्हें यहाँ आने की कोई जरूरत नहीं।अपनी सास को देखो।यहाँ हम लोग हैं।जब सास ठीक हो जायें तो आकर माँ को देख जाना।"

Tuesday, September 24, 2019

वह बेनाम रह गया

वह बेनाम रह गया
---------------------------

lal bahadur Shatri ji


मैंने बहुत सपूत देंखे हैं,
किस-किस का मैं नाम गिनाऊँ,
सबके होते रहतें हैं किस्से,
और आतें हैं याद।
कुछ सपूत ऐसे भी आये,
बिना नाम के रह गये,
लोगों ने उन्हें भुलाया,
वे बेनाम रह गये।
एक छोटा सा दुबला-पतला,
बिल्कुल साधारण गरीब सा,
न साधु न सन्यासी था,
बिल्कुल मामूली आदमी था।
दो अक्टूबर को दुनिया में आया,
पर बड़े नाम में खो गया,
वह भी मेरा ही सपूत था,
बिना नाम के रह गया।
उसने दुश्मन को औकात दिखाई,
दूर जो दुश्मन के साथ खड़े थे,
उनको भी ऑख दिखा दी,
बोला,
"अपना बोयेंगे अपना खायेंगे,
तुझसे हम कुछ न लेंगे,
अब तो,
"जय जवान जय किसान"
हमको कहना ही है।

पर हाय रे मेरी किस्मत,
तू क्यों रूठ गई थी,
उसे बिना समय दिये ही,
मुझसे क्यों छीन लिया है?
अब तो कोई उसे याद नहीं करता,
शायद नाम याद न होगा,
"जय जवान जय किसान"
फिर कैसे याद रहेगा,
तब फिर क्यों मैं नाम बताऊँ,
मेरा सपूत आखिर वह कौन था?

आज के लिए इतना ही...धन्यवाद
अगर आपको यह पोस्ट अच्छी लगी हो तो कृपया कमेंट और शेयर करें... सुधीर श्रीवास्तव

ऐसे ही और कहानियां पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करे


Monday, September 23, 2019

औलाद

औलाद
----------------
Aulaad

ईश्वर का दिया सब कुछ था राम नाथ जी के पास, माँ-बाप का मकान, धन-दौलत-वैभव सब कुछ था। नहीं थी तो एक औलाद। बेचारे कहाँ-कहाँ नहीं दौड़े। कितनी मनौतियां नहीं मनाई लेकिन सब बेकार, थक-हार कर औलाद होने की उम्मीद छोड़ बैठे थे, न जाने किसकी दुआओं से उसके घर में किलकारियाँ गूँजी कि एक पुत्र रत्न की प्राप्ति उन्हें हुई। चूँकि शादी के बारह साल बाद पुत्र प्राप्त हुआ था उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। खूब बड़ा भोज किया, शहनाई बजवायीं।
पुत्र दिन-ब-दिन बड़ा होता गया, बाबा-दादी का भी प्यारा था। वे अपनी ऑखों से ओझल नहीं होने देते थे उसे। जहाँ जाते अपने साथ ले जाते। खूब लाड़-प्यार करते थे। हर जिद पूरी कर देते थे। नतीजा वही हुआ जो माँ-बाप के कन्ट्रोल के बिना होना था। पुत्र जिद्दी हो गया। अब तो यह बात सत्य है कि माँ-बाप के साथ संतान जितनी अनुशासित रहेगी किसी और के साथ नहीं रह सकती केवल अपने चाचा को छोड़कर। बाबा-दादी, नाना-नानी तो बच्चे को दुलार करेंगे ही, लड़का हाईस्कूल पास करके इण्टर में पहुंच गया तो जिद्दी होने के साथ-साथ महत्वाकांक्षी भी हो गया।
लोगों ने इंजीनियरिंग की कोचिंग करने की सलाह दी, पर लड़के की इच्छा थी कि कोचिंग तो करेंगे ही लेकिन बाइक से जाऊँगा और उसी से वापस आऊँगा। पन्द्रह-सोलह के लड़के को बाइक न देना ही उचित समझा गया अतः बाइक नहीं दी गई।लड़के को हर जिद पूरी करवाने की आदत थी लेकिन यह जिद पूरी न होते देख अवसाद में चला गया। माँ-बाप से बोलना छोड़ दिया अकेले ही रहता। बहुत दवा की गई तब अब ठीक है लेकिन देर हो चुकी थी नौकरी के लिए उम्र सीमा समाप्त हो चुकी थी।
राम नाथ जी चिन्ता में डूबे रहते हैं लेकिन उनकी पत्नी अब भी लड़के के ऊपर मरी जातीं हैं। मकान है तो दस कमरे का ऑगन है, पोर्च है यानि मकान में सब कुछ है, पर राम नाथ जी के तीन भाई और हैं। जिनके हिस्से पर भी उनकी पत्नी ऑख गड़ाये बैठीं  थीं। न तो राम नाथ जी, न पत्नी लड़के के बारे में कुछ सोचतें हैं। न ही लड़का अपने बारे में कुछ सोचता है। राम नाथ जी के बाद माँ-बेटे का गुजर कैसे होगा ईश्वर ही जाने।

आज के लिए इतना ही...धन्यवाद
अगर आपको यह पोस्ट अच्छी लगी हो तो कृपया कमेंट और शेयर करें... सुधीर श्रीवास्तव

ऐसे ही और कहानियां पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करे

                      बच्चें तो बच्चें ही होते हैं
                 ---------------------------------
घटना बिल्कुल सत्य है।मेरी ऑखों देखी है इसमें कुछ भी नहीं जोड़ा या घटाया नहीं गया है।मैं प्रयागराज में रहता हूॅ इसलिये कुम्भ मेला देखने का अवसर मिलता ही रहता हूॅ।इस मायने में मैं खुशकिस्मत हूॅ।वैसे यह मेला हर साल लगता है लेकिन छोटे रूप में जिसे "माघ मेला" कहतें हैं।हर बारह साल बाद पूर्ण कुम्भ लगता है।लेकिन बीच में छः साल बाद अर्द्ध कुम्भ मेला लगता है।इस मेले की अहमियत वही जान सकता है जो मेले में आया हो।हर ओर भक्ति का आलम।साधु-संतों की भीड़।विदेशी सैलानियों तथा भक्तों का जन सैलाब।केवल कल्पना ही की जा सकती है।कहते हैं समुद्र-मंथन के बाद अमृत की कुछ बूंदें यहाँ गंगा-यमुना-सरस्वती के तट पर गिर पड़ीं थीं अतः इस मेले में तीनों पवित्र नदियों के संगम में स्नान करने से सारे पाप धुल जातें हैं।एक ओर अकबर का किला है तो दूसरी ओर लेटे हुए हनुमान जी की विशाल प्रतिमा है।किले में अक्षय वट है कहतें हैं पहले ऋषि-मुनि इस पर से यमुना में छलांग लगा देते थे तो सीधे स्वर्ग पहुंच जाते थे।यह बात सच है या गलत मैं नहीं जानता लेकिन ऐसी किवदंती है।
हाँ तो,
इस बार भी मैं अर्द्ध कुम्भ मेला घूम रहा था परिवार के साथ था।अचानक मेरी नजर एक आधुनिक और अप टू डेट दम्पति पर पड़ी।जिसके साथ दो बच्चें थे एक चार-पाँच साल का लड़का और एक लड़की आठ-दस साल की।लड़का दम्पति की तरह अप टू डेट था जब कि लड़की बहुत ही साधारण यहाँ तक कि हवाई चप्पल पहने थी।दम्पति लड़की से ऐसे व्यवहार कर रहे थे जैसे वह उनकी नौकरानी हो।एक जगह एक गुब्बारे बेंचने वाला गुब्बारा बेंच रहा था।लड़के ने जिद की तो दम्पति ने लड़की से एक ही गुब्बारा मंगवाया।लड़की गुब्बारे से खेलने लगी तो लड़के की माँ तुरन्त डपट पड़ी,"पगली गुब्बारा टिंकू के लिए मंगवाया है तेरे लिए नहीं।चल टिंकू को दे दे।दुष्ट कहीं की।"
लड़की ने गुब्बारा लड़के को दे दिया लेकिन हसरत भरी नजरों से गुब्बारे को देखते रह गई।मैंने भी अचरज से दम्पति को देखता रह गया।सोचा एक गुब्बारा लड़की के लिए भी खरीद दूं।लेकिन दम्पति बुरा न मान जाये इस डर से नहीं खरीदा।मन मसोस कर रह गया।सोचने लगा,"बच्चें तो बच्चें ही होंते हैं।फिर इतना अन्तर क्यों?"

Sunday, September 22, 2019

                         दुःख है इस बात का
                   ------------------------------
मुझे दुःख इस बात का नहीं,
कि,
लोगों ने धोखा दिया,
दुःख तो इस बात का है,
कि,
अपनों ने ही धोखा दिया।
जिन्हें समझता था अपना,
वह पराये हो गये,
और,
जो पराये थे,
पराये ही रह गये।
न पराये अपने हो सके,
न अपने ही अपने रह सके,
जाने क्या कमी है मुझमें,
किसी को न अपना कर सका।
अगर हो पता तुम्हें,
तो,
मुझमें ऐसी क्या कमी है,
कि,
हर व्यक्ति मुझसे पराया हो गया,
बता दो मुझे ऐ दोस्त,
कमी अपनी दूर कर सकूं।
                          जानें क्यों
                     -----------------
जाने क्यों पापा गुमसुम रहतें हैं?मम्मी गयी साथ में पापा के ओंठो की हँसी और उनकी मुस्कारट को लेंती गयीं।यह बात नहीं कि पापा अब हँसते नहीं।अब भी हँसते हैं लेकिन खोखली हँसी।अब पापा दार्शनिक हो गये हैं।दार्शनिक जैसे बातें करतें हैं।मुझे याद है मेरी शादी के लिए कितने उत्सुक थे पापा।रोज कोई न कोई प्रोग्राम बनाते रहते थे।रीना की शादी में ऐसे करूँगा कि दुनिया देखेगी।मम्मी से हमेशा ही कहते रहते थे,"मेरी तो इकलौती संतान है रीना अपनी पूरी ख्वाहिश पूरी कर लूँगा।"
लेकिन मम्मी का गुजरना जैसे पापा की उत्सुकता को लेता गया।मैं और पापा दो ही व्यक्ति बचे थे घर में।यह नहीं कि पापा ने मेरी शादी में कोई कमी रखी थी।खूब बढ़-चढ़ कर मेरी शादी की है।सभी बारातियों और मेहमानों ने खूब बढ़ाई की थी शादी की।हर इंतजाम की खुल कर वाह-वाही की थी।लेकिन पापा मैंने अनुभव किया कि वह उतने उत्सुक नहीं थे जितना मम्मी के रहते होंते।
मैं ससुराल आ गई वहाॅ पापा अकेले रह गए।मन उन्हीं में लगा रहता।देवेन्द्र ने बहुत कोशिश की बहलाने की लेकिन मन,"पापा-पापा" ही करता रहता।मैं पापा से मिलने का कोई न कोई बहाना खोजती रहती।मेरे ससुराल वालों को बुरा लगना लाज़िमी था।लेकिन "पापा"के आगे कुछ दिखता ही नहीं था मुझे।पापा शुगर तथा हार्ट के मरीज भी थे सो "उन्होंने दवा खाई या नहीं" यह चिन्ता भी मुझे लगी रहती।दिन भर में जब तक तीन-चार बार फोन से बात न कर लेती चैन नहीं होता था।
एक बार सासू माँ बीमार थी और पापा पर शुगर ने अटैक कर दिया।मैंने देवेन्द्र से बहुत कहा कि,"पापा के पास पहुंचा दो।शुगर बढ़ गया है उनका।"
देवेन्द्र कहते,"माँ बीमार है उनको कौन देखेगा?"
मैंने कहा,"तुम जो हो।"
लेकिन देवेन्द्र पापा के पास मुझे ले जाने को तैयार न थे।मैं खुद ही अकेले पापा के पास पहुंच गई।पापा ने मुझे देखा और खोखली हँसी हँसकर बोले," तुम आ गई?अकेले आई हो? देवेन्द्र कहाँ हैं? तुम्हारी सासू माँ कैसी हैं?"
मैंने कहा,"बीमार ही हैं।"
पापा तुरन्त आपे से बाहर हो गए,"तुम्हें बुलाया किसने था?जो यहाँ आ गयी?अपनी सास को बीमार छोड़कर तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई यहाँ आने की?मेरा नाम तुमने डुबो कर रख दिया।क्या सोचते होंगे ससुराल वाले?यही न कि हमने तुमको बाँध रखा है?मेरी मोह-माया से तुम छूट नहीं पाई हो?मुझे तुमसे कोई प्यार-मोहब्बत नहीं है।अभी इसी वक्त उल्टे पाँव अपने ससुराल चली जाओ।सास को देखो।"
पापा का यह रूप देख मैं दंग रह गई।तुरन्त ससुराल लौट पड़ी।आज पापा नहीं हैं।लेकिन उनका सबक मुझे अबतक याद है।
आज मेरे चाचाजी मेरे घर आये थे।पापा की एक चिट्ठी,जो मेरे नाम से थी, दे गये हैं।मैंने चिठ्ठी पढ़नी चाही लेकिन सासू माँ को देखने मुहल्ले की औरतें आ गयीं थीं।अतः चिठ्ठी आलमारी में रख दी।रात को समय मिला तो खोल कर पढ़ने लगी।लिखा था,"प्रिय बेटी,
                    क्षमा करना मैंने तुम्हें डाँटा।मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूॅ।मैंने तुम्हें इसलिये डाँटा था तुम मेरी मोह में ससुराल से अलग हो रही थी जो शादी के बाद तुम्हारा असली घर है---------------------।"

Saturday, September 21, 2019

रिटायर पापा

रिटायर पापा

------------------------

retirement

पापा रोडवेज में फोरमैन हुआ करते थे।नौकरी में थे तो हँस-मुख थे। माँ जब वह पचपन साल के थे उनका साथ छोड़कर चलीं गईं, तब से पापा अकेले से पड़ गये। किसी से अपना दुःख-दर्द नहीं कह पाते हैं, अपने मन की बात भी नहीं कहते हैं। ऑफिस की देर होती रहती थी लेकिन भाभी को जल्दी भोजन बनाने के लिए नहीं कहते थे। देर से ही सही ऑफिस जरूर जाते थे। शाम को आते चुपचाप कुर्सी पर निढाल बैठ जाते थे पर पानी नहीं मांगते थे। भाभी ने जब दे दिया पी लेते थे या खुद ही फ्रिज से निकाल कर पी लेते थे। लेकिन साथ में कुछ खाने की उम्मीद भी नहीं करते थे। चाय मिल गयी तो पी लिया नहीं चुप मारकर रह जाते थे। उनकी एक आदत थी जो अब भी है सुबह बासी मुंह गर्म पानी लगभग डेढ़ लीटर पीते हैं फिर उसके बाद एक कप शुद्ध दूध की चाय अपने हाथ से स्वयं बनाकर पीते हैं। माँ थीं तो बराबर ध्यान देती थीं किन्तु जब से वह न रहीं सुबह कभी दूध नहीं मिलता तो कभी चाय बनाने का बर्तन, पापा बिना चाय पिये ही रह जातें हैं। माँ के रहते हुए यदि सुबह चाय के लिए दूध नहीं पाते थे तो हंगामा मचा देते थे लेकिन अब कोई हंगामा नहीं। शायद समय की नज़ाकत समय समझ चुके हैं ।
अब तो पापा रिटायर हो चुके हैं सो दिन भर घर में ही रहतें हैं। भइया के बच्चों के साथ दिन बिताते हैं। कभी-कभी भाभी भी गजब कर देतीं हैं अगर पापा सोये रहतें हैं तब भी बच्चों को उनके पास भेज देतीं हैं। सोने का मन होते हुए भी पापा बिना मन के बच्चों के साथ भारी मन से खेलने लगतें हैं। वैसे तो पापा बच्चों को रोज पार्क में घुमाने ले जातें हैं। लेकिन भाभी का उम्मीद लगाना कि वह घुमाने तो ले ही जायेंगे उन्हें बुरा लगता है। अब बासठ-पैसठ साल के बुजुर्ग से किसी बात की उम्मीद करना बेकार है कि नहीं?
भाभी का यह उम्मीद करना कि वे बच्चों को पढ़ाने के साथ-साथ सब्जी वगैरह ला दिया करें उन्हें बुरा लगता है। वे अपनी जिन्दगी अपने हिसाब से जीना चाहते हैं पर भाभी जब कोई काम थोपतीं हैं तो उनका बुरा मानना लाज़िमी है। पापा पढ़ने-लिखने के बहुत शौकीन है सो अक्सर ही कुछ न कुछ पढ़ते-लिखते रहतें हैं उस समय उन्हें अवरोध पसंद नहीं रहता है जब भाभी उस समय भी कोई काम कह देंती हैं तो पापा को कितना कष्ट होता है कोई नहीं समझ सकता।
मेरा तो विचार है कि रिटायर व्यक्ति को अपने मन-मुताबिक दिन-चर्या से रहने देना चाहिए क्योंकि जब वह अपने हिसाब से जियेगा तो ज्यादा खुश रहेगा और लम्बी उम्र जियेगा। उस पर किसी काम को थोप कर उससे कार्य करने को मजबूर करना जहाँ एक ओर उसकी खुशियों को उससे छीनता है वहीं दूसरी ओर उसकी उम्र कम करता है।

आज के लिए इतना ही...धन्यवाद
अगर आपको यह पोस्ट अच्छी लगी हो तो कृपया कमेंट और शेयर करें... सुधीर श्रीवास्तव

ऐसे ही और कहानियां पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करे

Friday, September 20, 2019

                           वैमनस्यता
                        ------------------
"राज ट्रांसपोर्ट कम्पनी"
अपने शहर की मानी-जानी ट्रांसपोर्ट कम्पनियों में से एक थी।कम्पनी के मालिक सरदार मोहिन्दर सिंह जी एक धनाढ्य व्यक्ति थे।उनके अन्य दो भाई सरदार जोगिंदर सिंह तथा सरदार बलविंदर सिंह भी कम्पनी से जुड़े थे।तीनों भाइयों में बहुत मेल रहता था।वैसे भी आदमी लोग पारिवारिक झगड़ें नहीं करते।झगड़े होतें हैं तब जब घर में बहुएं आ जातीं हैं।मोहिन्दर सिंह जी जब तक परिवार में अकेले विवाहित पुरूष थे।तीनों भाइयों में बहुत मेल मेल-मिलाप था।साथ ही खाना-पीना रहता था।मोहिन्दर सिंह अगर किसी भाई को डाँट देते थे तो वह बुरा नहीं मानता था।
लेकिन जब से जोगिंदर और बलविंदर की शादी हुई है।घर में रोज किच्-किच् होने लगी।छोटे भाइयों को लगने लगा कि मोहिन्दर सिंह अधिक से अधिक पैसा लेकर उनको कम पैसा देतें हैं जैसे वे उनके भाई न होकर वेतनभोगी कर्मचारी हों।धीरे-धीरे छोटे भाइयों ने अपनी-अपनी ट्रांसपोर्ट कम्पनियां खोल लीं।भाइयों की इस विभीषण गिरी का परिणाम यह हुआ कि मोहिन्दर सिंह की कम्पनी "राज ट्रांसपोर्ट कम्पनी" को हानि होने लगी।उन्होंने एक-एक कर ट्रकों को बेचना शुरू कर दिया।कर्मचारियों की छंटनी शुरू कर दी।अन्त में उनके पास एक ट्रक और चार वफादार ड्राइवर ही रह गए।बाकी सभी कर्मचारी चले गए।चारों ड्राइवर चार धर्म के थे हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई।
चारों एक-एक कर ट्रक चलाते थे।हिंदू हमेशा "हनुमान जी" की फोटो ट्रक में लगाता था।जब कि मुस्लिम "अल्लाह"की,सिक्ख "वाहे गुरु" की और ईसाई "क्रास" की।चारों एक-दूसरे की तस्वीर पसंद नहीं करते थे।जो ड्राइवर ट्रक चलाता था ट्रक में अपने भगवान् की तस्वीर लगा लेता था।यदि कोई ड्राइवर किसी कारण वश तस्वीर उतारना भूल जाता था तो दूसरा उसे उतार कर एक कोने में डाल देता था।तस्चीर  चारों ड्राइवर में वैमनस्यता का कारण बनती चली गई।उन्होंने ट्रक को भी मेनटेन रखना छोड़ दिया।नतीजा यह हुआ कि एक तस्वीर के कारण ट्रक बर्बाद हो गई और चारों ड्राइवर में बोलचाल बन्द होने लगी।

Wednesday, September 18, 2019

               आओ हम महक जायें
          -----------------------------------
थोड़ा मैं महक जाऊँ,
थोड़ा तुम महक जाओ,
यह फिज़ा यह दिशा,
महक जाये।
अपनी महक से,
हम वातावरण महका दें,
गुलाब मैं बन जाऊँ,
चमेली तुम बन जाओ।
इस दुनिया में,
हम निशानी छोड़ जायें,
महक में हमारी,
यह जहाँ डूब जाये।
उबर न सके जहाँ,
हमारी महक से,
इस जहाँ को इसमें,
इस कदर हम डूबें दैं।
                           आप बीती
                     ---------------------
जी हाँ,
मैं जो कुछ भी कहने जा रहा हूॅ,सत्य है।क्योंकि यह मेरी आप बीती है और इसे इसलिये कह रहा हूॅ  कि सभी इससे सींखे और जितना हो सके सबका भला करें।
अधिक दिन की तो बात नहीं है बस  २०१० से लेकर २०१२  तक की बात है।२०१० से ही पता नहीं क्यों मेरे दाहिने हाथ में चलते समय दर्द रहने लगा।जब मैं बैठ जाता तो दर्द गायब हो जाता।मैंने कोई गौर नहीं किया।रोज ड्यूटी जाता रहा सभी काम करता रहा।धीरे-धीरे दर्द बढ़ने लगा वह दाहिने हाथ की ऊँगली से उठता हुआ पूरी पीठ तथा दोनों कंधों पर होने लगा।मैं परेशान होने लगा।धीरे-धीरे यह दर्द असहनीय होने लगा।मैं थोड़ा-थोड़ा चलता।दर्द उठने लगता तो बैठ जाता था।दर्द को समझता "गैस" की बिमारी है।मेरी इस नादानी का नतीजा यह हुआ कि चलते हुए दर्द मेरे दिल में होने लगा।फिर भी गैस समझकर मैंने इस गौर नहीं किया।एक दिन मैंने हड्डी के डाक्टर को दिखाया तो उसने मुझे कुछ दिन आराम करने की सलाह दी।उस समय मेरे एक अधिकारी हुआ करते थे,नाम तो मैं बताऊँगा नहीं कहीं बुरा न मान जायें,छुट्टी के मायने में बहुत कड़क थे।मैंने उनको बताया उन्होंने चार दिन की छुट्टी दे दी।तब मैंने जाना कि वे एक सच्चे इंसान है।छुट्टी देने के मायने में इसलिये कड़क थे कि हम निरंकुश न हो जाये।लेकिन उसी दिन दर्द ने भयंकर रूप लिया और एक बार जो उठा बढ़ता ही गया।कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था।पूरा हाथ,पीठ,
कंधें,दिल दर्द करने लगा।किसी तरह घर पहुंचाया गया।पसीने-पसीने मैंने डाक्टर को दिखाया तो उसने कहा,
"यह तो एंजाइना दर्द है जिसका असर हार्ट पर होता है।"मैं एक हफ्ते अस्पताल में भर्ती रहा।डिस्चार्ज होकर घर आया।"एनजिओ ग्राफी" करवाई तो पता चला दिल को खून की आपूर्ति करने वाली दो धमनियां Block हैं।
"एनजिओ पलास्टी" करवानी पड़ी।पैसे नहीं थे तीन लाख रुपये मेरे पास नहीं थे तो मेरी भतीजी तथा उसके पति ने इलाज करवाया।मैं उनका एहसान मंद रहूँगा।इलाज के बाद वापस ड्यूटी पर पहुंचा तो अधिकारी महोदय मेरी ड्यूटी ही बदल दी।यह नहीं कि मुझे बैठाकर वेतन दिलवाते थे बल्कि मेरे शरीर लायक, जिसमें मानसिक तनाव न हो, काम ही मुझे सौंपते थे।इस प्रकार मैं स्वस्थ हुआ।हालाँकि वह अधिकारी महोदय उम्र में मुझसे छोटे हैं।लेकिन मैं उनका पैर छूता हूॅ।इसलिये नहीं कि वे अधिकारी हैं बल्कि इसलिए कि वे सही मायने में सच्चे इंसान हैं।और दूसरे इंसान मेरी भतीजी के पति हैं।

यमराज मिल गये रास्ते में

यमराज मिल गये रास्ते मे
------------------------------------

yamraj


एक दिन की बात बताऊँ,
यमराज मिल गये रास्ते में,
मैंने पूछा,
"महाराज आप  !
यहाँ क्यों पधारे हैं?"
यमराज बोले,
"वत्स,
देखने आया हूॅ,
किस किस के दिन पूरे हो गये,
किसको कब उठाना है,
अपने दूत को कब भेजना है।"
मैंने पूछा,
"चित्रगुप्त क्या करतें हैं,
क्या लेखा-जोखा नहीं रखतें हैं?"
यमराज बोले,
"वत्स,
वह रिटायर हो चुकें हैं,
ईश्वर ने नयी भर्ती को मना किया है,
नये आदेशों तक संविदा पर,
एक व्यक्ति रखा है,
तब तक मुझे ही सब करना है,
क्या करूँ,
आखिर सुपरवाइजर जो ठहरा,
रोज ही डाँट-डपट सुनता हूॅ।"
मैंने कहा,
"उस संविदा का परिचय तो दीजिए।"
वह बोले,
"पहले कलियुग का व्यक्ति था,
साला बहुत बेईमान कमीना था,
उल्टी-सीधी पोस्टिंग करता था,
बहस ऊपर से करता था,
अब सतयुग का रखा है,
ईमानदारी से काम सीख रहा है।"
उनके द्वारा नाम लिखते-लिखते शाम होने को आ गयी,
बोले,
"वत्स,
थक गया हूॅ,
अब सोना चाह रहा हूॅ।"
एक पेड़ के नीचे,
हम दोनों बैठ गये,
मैंने कहा,
"महाराज,
सोने के इस गदे को तकिया बना लीजिये,
और चाँदी की चप्पल को पैरों से मत उतारिए,
कलियुग बड़ा विकट है,
मनुष्य का कोई ठिकाना नहीं।"
यमराज न माने,
अपनी ऐंठन में थे,
और,
गहरी नींद में सो गये।
रात लगभग दो बजे,
उन्होंने मुझको हड़बड़ा कर उठाया,
बोले,
"गजब हो गया,
गदा मेरा चोरी हो गया,
क्या जवाब दूंगा ईश्वर को,
नहीं समझ में आ रहा।"
मैंने कहा,
"मैंने पहले ही कहा था,
आप ही न मानें,
यहाँ तो अच्छे-अच्छे दरोगाओं की पिस्टल ही,
चोरी हो जाती है,
चलिए,
अब थाने चलतें हैं,
और,
रपट लिखातें हैं।"
थाने में,
दरोगा के कानूनी सवालों का जवाब,
तो यमराज दे न पाये,
उस पर से सिपाहियों की नजरें,
अपने गहनों पर गड़ी देखकर,
वह घबड़ा गये।
बोले,
"वत्स,
जो हो गया सो हो गया,
किसी तरह झेल ही लूंगा,
लेकिन,
इतने कानूनी दांव-पेंच मैं नहीं जानता,
सीधा-सादा इज्ज़तदार आदमी हूॅ,
इज्ज़त अधिक प्यारी है,
ऊपर से सिपाहियों की गड़ी नजरें,
बर्दाश्त के बाहर हैं,
चलो वत्स,
मुझे रपट नहीं लिखानी है।"
मैं भी अब समझा,
एक इज्ज़तदार आदमी पुलिस से,
क्यों बचता है,
और,
कानूनी दांव-पेंच से क्यों,
दूर भागना चाहता है।

आज के लिए इतना ही...धन्यवाद
अगर आपको यह पोस्ट अच्छी लगी हो तो कृपया कमेंट और शेयर करें... सुधीर श्रीवास्तव

ऐसे ही और कहानियां पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करे

Tuesday, September 17, 2019

मैं श्मशान जब कभी जाता हूॅ

मैं श्मशान जब कभी जाता हूॅ
--------------------------------------

Truth of Life

जिन्दगी जीतें हैं लोग कई तरीकों से,
कोई रहता बंगलों में है,
कोई झोपड़-पट्टी में,
किसी का आलीशान मकान बना है,
किसी की एक छोटी झोपड़ी सी है।
कोई खा पीकर मस्त रहता है,
कोई खाने को तरसता है,
कोई सूट-बूट धारण करता है,
कोई कपड़े के एक टुकड़े को तरसता है।
किसी का नाम बहुत रहता,
कोई बेनाम रह जाता है,
जिन्दगी जीना सभी चाहते,
अपने-अपने तरीकों से।
मैं भी जीना बहुत चाहता,
परिवार में अपने,
सुख-संपत्ति सभी चाहता,
दुःख न आये मेरे ऊपर।
कभी खुद को नहीं देखता,
न ही अपने कर्म देखता हूॅ,
मैं ही सबसे अच्छा हूॅ,
ऐसा मैं समझता हूॅ।
लेकिन,
जब श्मशान जाता हूॅ,
हकीकत समझ में आती है,
चाहे राजा या रंक हो,
बिना वस्त्र के देखता हूॅ।
एक ही लकड़ी का बिस्तर,
एक ही तरह का चंदन,
घी का लेप देखता हूॅ,
वही फूलों की माला,
एक ही आग देखता हूॅ।
बिना महापात्र के उद्धार नहीं होता,
ऐसा लोग कहतें हैं,
जीते जी राक्षस रहा हो,
या,
साधु पुरूष रहा हो,
प्रेत योनि में रहता है।
लेकिन,
मैं यह सब नहीं मानता,
पर,
समाज से मजबूर हूॅ।
यदि,
जीते जी साधु पुरूष रहें हम,
तो,
दाह-संस्कार जैसा भी हो,
उद्धार खुद हो जायेगा।।

आज के लिए इतना ही...धन्यवाद
अगर आपको यह पोस्ट अच्छी लगी हो तो कृपया कमेंट और शेयर करें... सुधीर श्रीवास्तव

ऐसे ही और कहानियां पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करे

एक रात यमराज आये पास मेरे

एक रात यमराज आये पास मेरे
------------------------------------------
Yamraj

एक रात की बात बताऊँ,
यमराज आये थे पास मेरे,
जगाया मुझे,
बोले,
"उठ बेटा,
चल अब मेरे साथ,
समय तेरा पूरा हो गया।"
मैं जागा,
उनको देखा,
काले-कलूटे से थे वे,
उनका भैंसा द्वार पर खड़ा-खड़ा,
जुगाली कर रहा था।
मैंने कहा,
"कौन हो भाई,
मेरे पास क्यों आये हो?
मैं दान आदि में विश्वास नहीं करता,
मुझसे कुछ न पाओगे।"
रंग बदला यमराज के चेहरे का,
बोले,
"मैं कुछ लेने नहीं,
तेरी उम्र पूरी हुई,
तुझको ही लेने आया हूॅ,
चल मरने को तैयार हो जा।"
मैं बोला,
"अभी-अभी मैं उठा हूॅ,
वह भी तुमने उठा दिया है,
सुबह के केवल पाँच बजे हैं,
मैं नौ बजे के बाद उठता हूॅ,
अभी तो कहीं जा नहीं सकता,
मरने की बात दूर है।"
यमराज तमतमा उठे,
बोले,
"तेरी इतनी हिम्मत,
जानता नहीं यमराज हूॅ मैं  !"
मैं बोला,
"कोई भी हो,
डरता नहीं किसी से मैं,
पहली बात यह कहता हूॅ,
जबान संभाल कर बात करो,
तुम मुझे जानते नहीं,
इस गली का दादा हूॅ मैं,
क्या तुमको डर नहीं लगता,
वह भैंसा तुम्हारा ही है न,
गोबर कर गेट गन्दा कर डाला है,
जाओ पहले गोबर साफ करो,
तब मुझसे बात करना आकर।"
यमराज गुस्से में लाल हो गये,
मुझे मारने को गदा उठाया,
मैंने भी बन्दूक लेनी चाही,
तभी पत्नी की आवाज कानों में पड़ी,
"किस बेवकूफ का भैंसा है यह,
यहाँ कहाँ से आ गया,
गेट गन्दा कर डाला है,
ए जी उठिए तो जरा,
उसे ढूँढ कर लाइये,
और इस भैंसे को दूर यहाँ से भगाइए।"
सुनकर मेरी पत्नी की बातें,
यमराज की कंपकंपी छूट गयी,
बोले,
"बेटा,
क्या तू अपनी पत्नी से डरता नहीं,
बड़े ताज्जुब की बात है,
मुझे भी वह उपाय बताओ,
पत्नी मेरी मुझसे डरा करे।"
पत्नी बोल पड़ी तुरन्त ही,
"कहाँ हो यार,
मैं कब से चिल्ला रही,
क्या कानों  में नहीं घुसी?"
मैंने देखा,
यमराज घबड़ाये से थे,
मैं बोला,
"भाई,
तुम चाहे जो कोई भी हो,
मैं नहीं जानता,
लेकिन अभी तो चल सकता नहीं,
पत्नी से मैं बहुत डरता हूॅ,
पहले उसकी आज्ञा सुनूगां,
तुम्हारे बारे में बाद में सोचूंगा,
पहले भैंसा भगाना है जरूरी।"
सुनते ही यमराज बोले,
"सच है,
पत्नी से दुनिया डरती है,
अभी तो मैं भैंसा लेकर भागता हूॅ,
फिर कभी आऊँगा।"

आज के लिए इतना ही...धन्यवाद
अगर आपको यह पोस्ट अच्छी लगी हो तो कृपया कमेंट और शेयर करें... सुधीर श्रीवास्तव

ऐसे ही और कहानियां पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करे


मैं पहुंचा एक शादी में

मैं पहुंचा एक शादी में
------------------------------

Shadi

घटना बिल्कुल सही है,
झूठ नहीं मैं बोल रहा,
ऑखों देखी मेरी है,
आपने ने भी अनुभव किया होगा।
मैं पहुंचा एक शादी में,
बड़े भाई के साले की लड़की की शादी थी,
मैं और मेरा परिवार साथ था,
और लोग भी जमा हुए थे।
कोई सूट-बूट धारण किए हुए,
कोई साधारण वेश में था,
औरतों को देखा,
ओवर मेकअप किये हुए,
कोई बिल्कुल साधारण थी।
लड़कियां सेल्फी में बिजी थीं,
लड़के कुछ दूर खड़े,
और नजरें बचाते हुए,
उनपर टकटकी लगाये थे।
लड़की वाले ने निवेदन किया सबसे,
"भइया,
नाश्ता कर लीजिए"
ऐसे दौड़े लोग वहाॅ पर,
जैसे ट्रेन छूट रही हो।
कोई कुछ खाता कोई कुछ खाता,
कोई-कोई तो सबकुछ खा रहा था,
ऐसे,
जैसे कभी खाया न हो।
नाश्ते के बाद पानी का नम्बर आया,
लोग पानी कम पी रहे थे,
लेकिन,
कोल्डड्रिंक,कॉफी,चाय,
एक के बाद एक पी रहे थे।
सबकुछ खाने के बाद भी,
भोजन को ताक रहे थे,
इशारा होते ही,
ऐसे टूटे,
जैसे,
भोजन खत्म होने वाला हो।
एक प्लेट में,
चावल,दाल, रोटी, सब्जी,
दही बड़ा,चटनी,पनीर, मशरूम,पापड़,
रसगुल्ला, हलुवा लेकर खा रहे थे।
खाते कम बातें ज्यादा करते थे,
और,
सब मिलाकर खट्टा-मीठा,
नमकीन,कड़वा भोजन का स्वाद खराब कर देते,
लोग कहते,
"भोजन अच्छा नहीं बना है",
कूड़ेदान में डाल देते थे,
मैंने सोचा,
"क्या घर में भी ऐसा ही करतें होंगे?"
एक मेहमान को देखा,
आइसक्रीम पर जुटा हुआ था,
सच मानिए,
मैंने अपने बेटे को भी गिनाया,
मेरे सामने वह पन्द्रह आइस्क्रीम खा चुका था,
मैं समझ न पाया,
आखिर ऐसा लोग क्यों करतें हैं,
क्या दूसरे की इज्ज़त इज्ज़त नहीं होती,
अपने दरवाजे पर भी,
क्या वे ऐसा करतें होंगे।

आज के लिए इतना ही...धन्यवाद
अगर आपको यह पोस्ट अच्छी लगी हो तो कृपया कमेंट और शेयर करें... सुधीर श्रीवास्तव

ऐसे ही और कहानियां पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करे

                 एक दिन पहुंचा मैं ईश्वर के द्वार
               --------------------------------------
एक दिन पहुंचा मैं ईश्वर के द्वार,
भीड़ वहाँ बहुत अधिक थी,
वी आई पी भी बैठे थे,
चाहे राज नेता रहें हों,
या आम जनता ही हो,
या फिर कोई और रहा हो,
एक कतार में खड़े हुए थे।
चित्रगुप्त जब नाम बोलते,
उपस्थित सामने होते थे,
चित्रगुप्त लेखा-जोखा देखते,
ईश्वर को बताते थे।
लेकिन,
ईश्वर को मैंने देखा,
सर पकड़कर बैठे थे,
कुछ लोग उन्हें घेरे थे,
हल्ला खूब मचा रहे थे।
मैं तो जीवित अवस्था में था,
उनके पास पहुंच गया,
पूछा,
"भगवन्,
आप बड़े चिंतित लगतें हैं,
आखिर क्या बात है?"
ईश्वर बोले,
"वत्स,
क्या बताऊँ,
बात ही कुछ ऐसी है,
अपनी गलती से यहाँ पृथ्वी से मैंने,
सत्ता और विपक्ष दोनों को बुला लिया है,
सत्ता पक्ष शान्त बैठा है,
विपक्ष चिल्ला रहा है,
"हम चाहे जैसे भी हों,
स्वर्ग हमको चाहिए,
और,
जो साथी मेरे नर्क में बैंठे हैं,
उनको भी यहीं बुलाओ तुम।"
यदि मैं नहीं मानता,
धरने तथा भूख हड़ताल की धमकी देतें हैं।"
मैं बोला,
"हे ईश्वर,
छोड़िये यह सब,
बस,
अब चुनाव करवा दीजिए।"
सुनकर मेरी बातों को,
ईश्वर न जाने क्यों कुपित हो गये,
बोले,
"दुष्ट,
क्या बोल रहा है,
मुझे बेवकूफ समझा है क्या?
नहीं छोड़नी मुझे अपनी कुर्सी,
चल भाग यहाँ से,
नहीं तो----------------।"
मैं भागा तुरन्त वहाॅ से,
और,
बिस्तर पर आ गिरा।

Monday, September 16, 2019

मैं पहुंचा इन्द्र पुरी में

मैं पहुंचा इन्द्र पुरी में
----------------------------


कल मैं उड़ रहा था,
आसमान में,
ऊपर बहुत ऊपर,
किधर जा रहा था,
पता नहीं था।
स्वर्ग खोज रहा था,
या,
नर्क को,
यह भी याद नहीं है,
बस,
भटक रहा था बीच आसमान में,
लेकिन,
उड़ तो ऊपर की ओर ही था।
देखा,
क्या देखा?
देखा,
इन्द्र पुरी में पहुंच गया था,
मैं पहुंच गया दरबार में,
इन्द्र देव सोम रस में मस्त थे,
देवता भी सोम रस ले रहे थे,
झूम रहे थे बेचारे,
और,
नर्तकियां नृत्य कर रहीं थीं,
सभी देवता बेखबर थे,
द्वार पाल भी मस्त पड़े थे,
किसी को खबर नहीं थी,
मैं अन्दर आ गया हूॅ।
उड़ते-उड़ते मैं थक गया था,
सोचा,
थोड़ा सोम रस ले लूं,
थकान मिट जायेगी।
पहुंचा सोम रस घड़े के पास,
एक कोने में रखा हुआ था,
बस,
चुल्लू भर पिया,
मजा आ गया,
थकान मिटने लगी थी।
क्योंकि,
मैं मनुष्य था,
लालच बढ़ने लगा,
पीने लगा मैं,
गटागट गटागट,
आखिर बूंद तक पी गया,
एक भी बूंद न छोड़ा था।
लेकिन,
मैं था इंसान ही,
लालची और दूसरे का हक मारने वाला,
घड़े को चाटने लगा,
सफा चट जब वह हो गया,
मुझे होश आने लगा,
कि,
क्यों मनुष्य असंतोषी होता है,
क्यों काटता है दूसरों का गला,
सब कुछ पाने के लिए?
उत्तर तो मिलना नहीं था,
मैं सोम रस पीकर भी,
बेचैन होने लगा।
उधर इन्द्र जी को होश आने लगा,
सोम-सोम चिल्लाये,
देवता दौड़े घड़े की ओर,
मैं डरा,
अब तो मेरी खैर नहीं।
छुप गया एक कोने में,
मैं देखने लगा,
देवता घड़े तक आये,
उसे उठाया,
और,
चिल्लाये,
"महाराज,
घड़ा तो खाली हो गया।"
इन्द्र समझ गये तुरन्त ही,
बोले,
"ढूंढो,
लगता है,
कोई मनुष्य आ गया,
वह ही इतना असंतोषी होता है।"
मैं भागा नीचे की ओर,
और बिस्तर पर गिरा,
तब जाना,
यह तो एक सपना था,
पर,
कितनी सत्यता लिये था,
अब,
समझ में आने लगा।

आज के लिए इतना ही...धन्यवाद
अगर आपको यह पोस्ट अच्छी लगी हो तो कृपया कमेंट और शेयर करें... सुधीर श्रीवास्तव

ऐसे ही और कहानियां पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करे

                   तुम दूर रहते हो
                 ---------------------
तुम दूर रहते हो,
लेकिन दिल को गुमाँ यह होता है,
तुम पास मेरे रहते हो,
हर आहट तुम्हारी लगती है।
हर धड़कन तुम्हारे नाम से होती है,
ऑखों में तुम ही तुम रहते हो,
तुम दूर रहो या पास रहो,
फर्क क्या पड़ता है,
जब दिल से दूर नहीं हो पाते हो?
दिल तो नादान है बेचारा,
तुमको ही खोजा करता है,
ऑखों का क्या है भला,
तस्वीर तुम्हारी रखतीं हैं।
तुम अगर दिख जाओ,
तुमको देखने का मन और करता है,
सामने जब पड़ जाते हो,
हमें शर्म आ जाती है।
अगर कुछ बोलना चाहूँ,
जुबां लड़खड़ा सी जाती है,
और अगर तुम बोले तो,
हमें कंपकंपी सी हो जाती है।

Friday, September 13, 2019

ईश्वर मिल गये रास्ते में

ईश्वर मिल गये रास्ते में
----------------------------------
God on road

कल ईश्वर से मुलाक़ात हो गई,
रथ पर सवार कहीं जा रहे थे, 
पड़ गया मैं उनके रास्ते में,
वे घबड़ा उठे।
सारथी ने हार्न बजाया, 
पर, 
मैं हटने को तैयार न था,
हार गया बेचारा, 
खुद ही चलकर आया।
बोला, 
"हटते क्यों नहीं,
बहरे हो क्या?"
मैं बोला, 
"बहरा तो नहीं,
लेकिन, 
जिद्दी हूॅ।"
वह बोला, 
"तकलीफ है क्या?"
मैं बोला, 
"तुमसे मतलब?
मैं ईश्वर से मिलना चाह रहा हूॅ।"
वह बोला, 
"मुझसे बोलो, 
ईश्वर तो न आयेंगे।"
मैं बोला, 
"क्यों न आयेंगे,
हमने तो सड़क जाम करके, 
न जाने कितनों को बुलाया है,
इनको भी आना ही होगा।"
बहस बढ़ती देख,
ईश्वर खुद आ गये,
बोले,
"वत्स, 
क्या बात है, 
यह जाम क्यों लगा बैठे हो?"
मैं बोला, 
"भगवन् , 
आप से ही बात करनी है, 
ये बताइए, 
बाप के रहते बेटा क्यों मर जाता है,
कभी-कभी छोटे बच्चों को छोड़कर, 
जवान बाप  क्यों मर जाता है?
हे ईश्वर, 
यह तो बताइए, 
सतयुग में आपके पिता ने श्रवण को मारा, 
तो उसके अंधे माँ-बाप कितने दुःखी हुए थे,
आपने देखा ही होगा?
और,
उन्हीं के श्राप से, 
आपके पिता मर गये, 
क्या आप दुःखी नहीं थे?
चलिए और गिनाऊँ,
आपके रहते झूठा अश्वत्थामा मारा गया,
द्रोणाचार्य कितने दुःखी हुए थे, 
क्या आपने देखा न था? 
अभिमन्यु मर गया अकेले, 
अर्जुन का दुःख आप झेल न पाये, 
और फिर, 
छल-कपट करके जयद्रथ को मरवा दिया,
ऐसा आपने क्यों किया?
जब आप खुद झेल न पाये, 
हम मनुष्य क्या झेलेंगे?"
ईश्वर बोले,
"वत्स, 
यह तो विधि का विधान है।"
मैं बोला, 
"अच्छा,
यह तो बताइए,
विधि कौन है,
और, 
यह विधान किसका है?
क्योंकि,
गीता में आपने कहा है, 
मैं ही ईश्वर हूॅ, 
और जो कुछ होता है, 
मेरी इच्छा से होता है।"
अब ईश्वर झांकने लगे इधर-उधर,
जवाब तो दे न पाये।
मैं फिर बोला, 
"हे ईश्वर, 
विनती करता हूॅ, 
भारत की राजनीतिक दलों को,
अपने पास बुला लीजिये, 
फिर चुनाव करवा दीजिए, 
जो जीतेगा पाँच साल,
उसे ईश्वर बना दीजिए, 
वादा करता हूॅ, 
वे आपके इस विधान को, 
कुछ लोगों पर से हटा देंगे,
और,
आपके सुप्रीम कोर्ट के विरोध में,
आपकी लोक सभा, 
आपकी विधान सभा,
आपकी राज्य सभा, 
आपकी विधान परिषद से,
कोई न कोई विधेयक पास करा ही लेंगे।"
बस सुनते भारत के राजनीतिक दलों का नाम, 
ईश्वर अन्तर्ध्यान हो गये,
और,
मेरा सपना टूट गया।

आज के लिए इतना ही...धन्यवाद
अगर आपको यह पोस्ट अच्छी लगी हो तो कृपया कमेंट और शेयर करें... सुधीर श्रीवास्तव

ऐसे ही और कहानियां पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करे

Tuesday, September 10, 2019

पिता की शादी

पिता की शादी
 ----------------------
शक्ति सिंह जी लगभग ५५ साल के होंगे।बहुत ही सज्जन पुरूष थे।छल-कपट तो आता नहीं था।उनके एक लड़का नीरज सिंह था।बहुत अच्छा लड़का था।पत्नी भी अच्छी पा गया था।पूरा परिवार सुखी था।कोई कष्ट नहीं था।शक्ति सिंह हर बात पत्नी से कर लेते थे।कोई भी कष्ट हो,चिन्ता हो,ऑफिस या और कहीं की।पत्नी से कहकर हल्के हो लेते थे।इसी बीच उनके ऊपर व्रजपात हो गया पत्नी स्वर्ग सिधार गयी।बेचारे उस उम्र में अकेले हो गये जब जीवन साथी की जरूरत सबसे ज़्यादा होती है।अब अपना दुखड़ा किसी से न कह पाते।
नीरज ने भी अनुभव किया कि,"पापा हमेशा चुप ही रहतें हैं।कम ही बोलतें हैं।केवल मतलब की ही बात करतें हैं।"
एक दिन पापा भोजन कर चुके थे।नीरज करने लगा तो उसने पाया कि दाल में नमक नहीं है।पत्नी को बताया तो उसने कहा, "पापा ने तो कुछ बताया ही नहीं।"
नीरज समझ गया कि पापा बहू के काम में बुराई नहीं कर सके।शक्ति सिंह वर्कशॉप के कर्मचारी थे।हर वर्कशॉप में हाजिरी समय से ही होती है।नहीं तो अधिकारी से Late allow करवाना पड़ता है या अनुपस्थित होना पड़ता है।शक्ति सिंह अक्सर ही लेट हो जाते थे।रोज-रोज Late allow करते-करते अधिकारी भी नाराज हो जाता।लेकिन बेचारे शक्ति सिंह किसी से कुछ कह नहीं पाते।बहू नाश्ता व भोजन ही देर से देती थी।पत्नी थी तो देर होने पर उसकी जान खा जाते थे लेकिन बहू को क्या कहें?
एक दिन अधिकारी ने उन्हें Late allow नहीं किया।बेचारे सड़क पर ही घूमते रहे।घर नहीं आये।घर पर जल्दी आने का कारण क्या बतायेंगे कि बहू ने देर कर दी इसलिये ड्यूटी से वापस कर दिया गया हूॅ?
रोज शाम को घर आकर निढाल होकर कुर्सी पर बैठ जाते।जब नीरज की पत्नी पानी चाय देते तो पी लेते।माँगते कभी नहीं थे।नीरज इन सब बातों समझ रहा था।पिता की विवशता भी जान रहा था।लेकिन क्या कर ही सकता था?
एक दिन उसके मन में एक विचार आया।परन्तु पापा से कैसे कहे?वह न मानेंगे।समाज भी हँसेगा।इसी उधेड़बुन में पड़ा रहा।लेकिन कब तक?
हिम्मत करके उसने शक्ति सिंह से कहा,"पापा शादी कर लो।"
शक्ति सिंह भड़क उठे,"पागल हो क्या? इस उम्र में शादी?समाज क्या कहेगा?जवान बहू घर में है वह क्या सोचेगी?"
नीरज बोला,"समाज को मत देखिये।रहना तो हमारे साथ है आपको। समाज दो दिन में सब भूल जाता है।मुझसे आपका अकेला पन नहीं देखा जाता।"
शक्ति सिंह कहते,"कौन करायेगा मेरी शादी और किससे करवायेगा?"
नीरज कहता,"आप इसकी चिन्ता छोड़ो।मैं सब कुछ करवा दूंगा।बहुत सी बिना संतान की बेवा औरतें ५० साल से ऊपर की हैं इस समाज में तिरस्कृत।किसी से शादी करवा दूंगा।आपको एक जीवन साथी मिल जायेगा और इसी बहाने किसी विधवा का उद्धार भी हो जायेगा।"
बेटे की जिद के आगे शक्ति सिंह ने हथियार डाल दिए।बेटे नीरज ने इस प्रकार दों जिन्दगियों को आबाद कर दिया।

आज के लिए इतना ही...धन्यवाद
अगर आपको यह पोस्ट अच्छी लगी हो तो कृपया कमेंट और शेयर करें... सुधीर श्रीवास्तव

ऐसे ही और कहानियां पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करे

Monday, September 9, 2019

तकरार

तकरार
----------------

Twin Brother

राम विजय और रवि विजय सगे भाई थे। माँ बचपन में ही गुजर गयीं धीं। बाप ने ही पास पोस कर बड़ा किया।दोनों ने माँ का प्यार कभी नहीं पाया। बाप ही सबकुछ थे। बाप बेचारे बहुत परेशान रहते। नौकरी के साथ-साथ दोनों भाइयों की जिम्मेदारी कंधे पर थी। लोगों ने बहुत कहा दूसरी शादी कर लो।
लेकिन यह कह कर कि, "सौतेली माँ बच्चों से कैसा व्यवहार करे पता नहीं" सो दूसरी शादी नहीं की।
उनका सब्र और त्याग रंग लाया। राम विजय नौकरी में आ गया। किन्तु रवि विजय बी एस सी में पढ़ता था।तभी अकाल मृत्यु ने बाप को आ घेरा और वे पत्नी के पास चले गए। अब राम विजय की शादी अवश्यंभावी हो गई। राम विजय पर अपनी  जिम्मेदारी के साथ-साथ रवि विजय की जिम्मेदारी आ गई। हालाँकि रवि विजय होशियार था कभी कोई चीज नहीं माँगता था लेकिन अपनी भी जिम्मेदारी कुछ होती है। इसलिए राम विजय उसका बहुत ध्यान रखता माँ-बाप की कमी को पूरा करने की हर संभव कोशिश करता। आखिरकार राम विजय ने शादी कर ही ली।
पत्नी से बोला,"मेरी एक ही इच्छा है कि रवि को माँ-बाप की कमी न खले। अब हम लोग ही उसके माँ-बाप हैं।बस वह किसी प्रकार अच्छी नौकरी पा जाये।"
पत्नी के मायने में राम विजय किस्मत वाला निकला, पत्नी क्या थी बिल्कुल लक्ष्मी थी। रवि को माँ बनकर मानती थी। धीरे-धीरे रवि की पढ़ाई पूरी होती गयी। नौकरी भी ऊँचे पद की पा गया। जबकि राम विजय बाबू ही था। रवि की नौकरी से सबसे अधिक खुशी राम विजय को ही हुई। घर पर जान-पहचान वालों की एक शानदार पार्टी कर डाली। जैसे कोई सपना पूरा हो गया हो।
समय पर रवि की शादी एक अच्छे परिवार की लड़की से कर डाली। रवि की पत्नी तेज निकली। जेठानी और जेठ का बंधन उसे पसंद नहीं था। जबकि राम विजय और उसकी पत्नी ने रवि तथा उसकी पत्नी को हर प्रकार की छूट दे रखी थी परन्तु रेखा(रवि की पत्नी) को उनकी छत्रछाया में रहना ही पसंद नहीं था। रवि से अलग होने को कहने लगी। लेकिन रवि तो भइया-भाभी के रंग में ऐसा रंगा था जैसे "काली कम्बल" हो दूसरा रंग चढ़ता ही नहीं था।
आखिर रेखा ने एक उपाय निकाला। वह सुमन (राम विजय की पत्नी) से झगड़ा करने लगी। सुमन सीधी-सादी औरत थी सो झगड़ा जानती ही नहीं थी। इसलिए रेखा खिसिया कर रह जाती।
इधर चूंकि रवि का पद पैसा कमाने वाला था अतः उच्च पदस्थ अधिकारी ने पैसे में हिस्सेदारी माँगनी शुरू कर दी। किन्तु रवि ठहरा एक सीधा-सादा तथा अच्छे संस्कारों में पला लड़का, न तो ऊपरी कमाई करता और न ही उच्च पदस्थ अधिकारी को कुछ देता। वह अधिकारी रवि को परेशान करने लगा। रोज रवि के ऑफिस का निरीक्षण करने लगा कामों तथा रिकॉर्डों में कमी खोजने लगा।साथ ही निलंबित करने की धमकी देने लगा।परेशान हो कर रवि ने घर पर सबकुछ बता दिया।
पत्नी बोली, "यार रवि, तुमको तो १८वीं सदी में पैदा होना चाहिए था। अरे,जी भर कमाओ और बाँटो।खुल कर जीओ जमाना यही है।"
राम विजय और सुमन कहते, "नहीं,ईमानदारी से काम करो, जो होगा देखा जायेगा, ईमानदारी जीतेगी, अभी तो हम दोनो हैं, चिन्ता किस बात की?"
भइया-भाभी की बातें रेखा की बातों से वजनी थी। रवि ईमानदारी से काम करता रहा। आखिरकार अधिकारी ने उसे निलंबित कर दिया। इस निलंबन के दौरान राम विजय और सुमन ने उसे कोई कमी नहीं होने दी। रेखा ने बच्चा जन्मा पूरा खर्च उन दोनों ने उठाया। एक दिन मुख्यालय से सबसे बड़ा अधिकारी रवि के आवेदन पर उसके निलंबन की जांच करने आया। उसने जाँच के दौरान रवि के कामों की तारीफ की, उसे फिर से बहाल कर दिया जबकि उच्च पदस्थ अधिकारी को "कारण बताओ नोटिस" जारी कर दिया। इन सबका रेखा पर ऐसा असर पड़ा कि उसने जेठ-जेठानी से माफी माँग ली और कहा, "आप मेरे जेठ-जेठानी ही नहीं मेरे माँ-बाप हैं।"

आज के लिए इतना ही...धन्यवाद
अगर आपको यह पोस्ट अच्छी लगी हो तो कृपया कमेंट और शेयर करें... सुधीर श्रीवास्तव

ऐसे ही और कहानियां पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करे

Friday, September 6, 2019

                         अन्तर बेटों का
                       --------------------
लाला अमर नाथ एक सीधे-सादे साधारण घर के आदमी थे।साधारण रहतें थे।रहन-सहन भी साधारण था।पहले जब टेलीग्राफ ऑफिस(तार घर) हुआ करता था उसमें टेलीग्राफिस्ट थे।प्रोन्नति पाकर टेलीग्राफ मास्टर हो गये थे।हालाँकि बाहर "तार बाबू" के नाम से मशहूर थे लेकिन ऑफिस वाले "डाॅक्टर साहब" कहते थे।क्योंकि उन्हें पढ़ने-लिखने का शौक था हमेशा कुछ न कुछ पढ़ते रहते थे।बातें भी फिलाॅस्फरों की तरह करते थे।यकीन मानिए  ९० साल की उम्र में भी बंगाली सीखते रहते थे।
उनके दों लड़के हैं ओम प्रकाश और ओम नारायण।ओम प्रकाश पढ़ने में बहुत तेज था साथ ही मेहनती।मेहनत रंग लाती और शुरू से कक्षा में प्रथम आता था।हाईस्कूल तथा इण्टर या कोई भी कक्षा हो कोई न कोई पोजीशन रखता था।किस्मत का धनी था सो पढ़ाई के लिए विदेश भी हो आया।नौकरी लगी तो बहुत ऊंची पोस्ट पर।साल में दो-तीन बार विदेश के चक्कर लगाने लगे।लाला अमर नाथ जी का दिमाग सातवें आसमान पर रहने लगा।ओम प्रकाश की शादी के लिए लड़की देखने लगे तो लड़कियों में कमी ही निकालने लगे।चूँकि लड़का बहुत काबिल था इसलिये लड़की भी बहुत पढ़ी-लिखी,बहुत सुंदर,स्मार्ट चाहिए थी।अतः जो भी लड़की देखते कमी ही निकाल देते।किसी को कम सुन्दर बता देते तो किसी को छोटे कद की,किसी को कम पढ़ी-लिखी,तो किसी को ऊँटनी कह देते,अगर राह रास्ते कोई लड़की वाला अपनी लड़की दिखाता तथा यदि उसकी लड़की धूपी चश्मा पहनी हो तो कह देते इसकी ऑखों में दिक्कत हो सकती है।कहने का आशय कि कोई लड़की ही पसंद नहीं करते थे।ओम प्रकाश की उम्र को जैसे पंख लग गये थे।दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही थी।बहुत इंतजार किया उसने तो हारकर एक प्रेम विवाह कर बैठा।लड़की साधारण ही थी लेकिन होशियार थी।लाला अमर नाथ जी के हाथ के तोते ही उड़ गए।किन-किन अरमानों को सोचा था।सब ध्वस्त हो गये।ओम प्रकाश अक्सर ही बाहर रहता इसलिये पत्नी को भी साथ ले जाता।उसके पास माँ-बाप के लिए समय न रहता।
ओम नारायण इसके विपरीत पढ़ने में कमजोर था।मेहनती था तो लेकिन शारीरिक।माँ-बाप का ध्यान रखता था।बिस्तर वगैरह सब बिछाता था।उसकी नौकरी एक बाबू के रूप में लग गयी।पत्नी मिली साधारण लेकिन सास-ससुर का ध्यान रखने वाली।
एक बार ओमप्रकाश तथा ओम नारायण घर में ही थे।माँ-बाप भी थे।दोनों बेटों में किसी बात को लेकर कहा-सुनी हो गई।तो लाला अमर नाथ बोले,"ओमप्रकाश तुमने मुझे नाम तो दिया किन्तु पुत्र का सुख तो ओम नारायण ने ही दिया है।मैं तो यही आशिर्वाद दूंगा कि तुम दोनों सुखी रहो।"

Thursday, September 5, 2019

                      घर-घर की कहानी
                  --------------------------
प्रेम नारायण जी की दो बहुएं थीं।उनमें बहुत मेल रहता था। साथ ही खाती-पीती।घर के सारे काम मिल कर निपटा लेतीं थीं।आपस में कोई वैमनस्यता नहीं रखतीं थीं।दोनों की मिसाल दी जाती थी।प्रेम नारायण और उनकी पत्नी सुखी-सुखी थे।इत्तेफाक से दोनों ने लगभग एक ही साथ बच्चें जन्में।बच्चें तो बच्चें ही होतें हैं।जहाँ मन हुआ गन्दा कर दिया जहाँ मन हुआ पेशाब कर दिया।कभी बड़ी का बच्चा छोटी के बिस्तर पर पेशाब कर देता तो कभी छोटी का बच्चा बड़ी के बिस्तर पर पेशाब कर देता।कभी बड़ी का बच्चा कहीं भी गन्दा कर देता तो कभी छोटी का बच्चा कहीं भी।दोनों एक-दूसरे को बताकर चुप हो जातीं। सोचतीं,"उनका बच्चा है वह साफ करेगी।"
जब-तक असली माँ नहीं आ जाती गन्दा पेशाब तथा बच्चा वैसे ही रहता।दूसरी बच्चे को छूती तक न थी।धीरे-धीरे यह वैमनस्यता इतनी बढ़ी कि दोनों ने अपने-अपने बच्चे को दूसरे के कमरे में सुलाना-रहना बन्द कर दिया।यदि एक का बच्चा दूसरे के घर गन्दा या पेशाब कर देता तो दूसरी नाराज हो जाती, "कितना बदमाश बच्चा है ठीक से नहीं वह रखती है।"
यह नाराज़गी आपसी बुराई में तब्दील होती गयी।दोनों एक-दूसरे के विरूद्ध होने लगीं।दूसरे के बच्चे को अपने कमरे में आने से तथा अपने बच्चे को दूसरे के घर जाने से रोकने लगीं।धीरे-धीरे बात पुरूषों तक पहुँचने लगी।वे आपस में लड़ने लगे।बात बँटवारे तक आ गई।सब बँट गया माँ-बाप रह गए।उनका भी बँटवारा हुआ कि छः महीने बड़े भाई के पास तो छः महीने छोटे भाई के साथ रहेंगे।
प्रेम नारायण जी सब देखते-सुनते रहे।अन्त में उन्होंने कहा, "ठीक है, हमें कोई कष्ट नहीं।मैंने यह मकान बनवाया है और तुम लोग मेरे मकान में रहते हो।मैं अपना मकान नहीं छोड़ूंगा।यदि तुम लोगों को कष्ट हो तो मकान खाली कर दो।और छह-छह महीने आकर रह जाया करो तो हम दोनों के लिए तुम लोगों की छह-छह महीने वाली शर्त भी पूरी हो जाएगी और मकान भी बचा रहेगा।"
अब दोनों बेटों तथा बहुओं को साँप सूंघ गया।कोई कुछ नहीं बोल पाया।
                            चापलूसी
                        -----------------
ज्वाला प्रसाद मिश्रा,
इनका नाम ही नहीं है।बल्कि दूसरों को देखकर जलना और कूढ़ना इनकी आदत में है।हैं तो बड़े बाबू लेकिन दूसरों की शिकायत अधिकारियों से करतें हैं और आजकल अधिकारी भी कान के कमजोर होतें हैं तथा चापलूसी अधिक पसंद करतें हैं इसलिए ज्वाला प्रसाद मिश्रा की चाँदी ही रहती है।इसी चापलूसी के दम पर वे इंचार्ज बन बैंठे हैं।ऐसा नहीं कि वह इस पद के लायक हैं या वरिष्ठ हैं किन्तु चापलूसी के कारण इंचार्ज हैं।अधिकारी कान के कच्चे हैं सो एक आदमी,जो पहले से काम करता आ रहा था, उसे हटाकर मिश्रा जी को सर्वेसर्वा बना दिया है।
चूँकि अधिकारी की निगाह में अच्छे हैं।अतः पैसा भी जी भर कमाते हैं।जब चाहा तब किसी को इस मेज से हटाकर उस मेज कर दिया।अब इस काम के लिए पैसा ऐंठना तो लाज़िमी ही है न।एक अच्छे -खासे व्यक्ति को अपने साथ सटाये रहतें हैं।वह बिचौलिए का कार्य करता है।मेरी भी शिकायत कई बार कर चुके हैं।अधिकारी भी इनके कहने के अनुसार ऑफिस का  कई बार मुआयना कर चुके हैं कई लेकिन हर बार बेचारे मुंह की खा जातें हैं।ज्वाला जी जब कभी भी डाँट खातें हैं तो उनका मुंह देखने लायक रहता है।कहतें हैं न,कुत्ते की दुम सीधी नहीं होती,फिर अधिकारी के कान भरना तथा दूसरों की शिकायत करना शुरू कर देंते हैं।अधिकारी कान के कच्चे फिर इनकी बातों में आ जातें हैं।
एक दिन ज्वाला प्रसाद जी शाम को घर जा रहे थे।थोड़ा सा दिमाग उलझा था उनका।चापलूस होने के बाद भी उस दिन डाँट खा गये थे।एक ट्रक से टकरा गये बेचारे।जिस आदमी को हटवा कर इंचार्ज बने थे उसी आदमी ने उन्हें अस्पताल पहुंचाया।डाॅक्टर को दिखाया।कई दिनों तक अस्पताल में रहे लेकिन कोई अधिकारी देखने नहीं आया।उन्हें अब समझ में आया कि चापलूसी करके कुछ नहीं मिलता।मिलता है तो अपने व्यवहार से।

Wednesday, September 4, 2019

प्रेम की भाषा

प्रेम की भाषा
---------------------



राम प्रकाश जी की उम्र होगी लगभग ५६ साल की, साधारण परिवार से हैं और ऑफिस में बाबू हैं।बड़ी मुश्किल से कालोनी में मकान बनवा पायें हैं।इनको लक्ष्मण तथा लखन नाम बहुत पसंद है अतः दोनों लड़कों का नाम भी लक्ष्मण व लखन ही रख दिया। बड़े का नाम लखन तो छोटे का लक्ष्मण रखा।लखन कचहरी में पेशकार तो लक्ष्मण बैंक में नौकरी करता है। लखन की शादी भी कर चुके हैं। उसकी पत्नी छोटे कद की है साथ ही कुछ मोटी, कहने का मतलब गोल-मटोल है। लेकिन स्वभाव से बहुत अच्छी मिलनसार, हँस-मुख, दूसरों की कद्र करने वाली, बड़ों को उचित आदर देती है तो छोटों को उनका प्यार, कोई भी मौका हो हर मौके में सबकी सहयोगी, यही कारण है कि घर से लेकर पास-पड़ोस सब जगह पसंद की जाती है, किन्तु किस्मत की मारी शादी के पाँच साल बाद भी बच्चा न जन्म सकी।
लक्ष्मण भी शादी योग्य हो गया था सो राम प्रकाश जी ने उसकी भी शादी कर दी।आज-कल लड़का जे ई हो, बैंक में हो,
रेलवे में हो, एल आई सी में हो अर्थात कुल मिलाकर ऐसी ही सरकारी नौकरी में हो पत्नी के माने में वह किस्मत वाला होता है।लक्ष्मण तो बैंक में है पत्नी सुन्दर मिली। पढ़ी-लिखी भी है, लम्बी छरहरी। सुरभि (लक्ष्मण की पत्नी) ससुराल में रहने लगी तो हर क्षेत्र में अपना एकाधिकार जमाने की कोशिश करने लगी। जेठानी (कमला) की लोकप्रियता उसे पसंद न आती। वह सोचती, "कमला नाटी और मोटी है, मुझसे कम सुन्दर है, मैं अधिक पढ़ी-लिखी हूॅ तब मुझे अधिक प्यार मिलना चाहिए। मेरे में क्या कमी है जो उसे लोग अधिक पसंद करतें हैं?"
यह सोच उसकी कुढ़न में बदलने लगी। सास-ससुर हों या कमला सबसे कूढ़ने लगी। हर सवाल का जवाब उल्टा देने लगी।बात-बात पर गुस्सा उसकी नाक पर रहता, पास-पड़ोस से भी उसके सम्बन्ध बिगड़ते चले गए, धीरे-धीरे वह लक्ष्मण से अलग रहने को कहने लगी। लक्ष्मण टाल जाता था तो मुंह फुला लेती और कई-कई दिनों तक किसी से बात न करती। राम प्रकाश जी और उनकी पत्नी सब देख-समझ रहे थे।
जब बहुत अति हो गई तो लक्ष्मण से एक दिन कह दिया, "बेटा, अब अलग होने में ही भलाई है तुम्हारी भी तथा हम लोगों की भी।क्योंकि बहू का व्यवहार सहा नहीं जाता। कमला को बाँझ कहती है। हम लोगों को भी जो जी में आता है बक देती है।"
लक्ष्मण ने बहुत कोशिश की, कि अलग न हों लेकिन सुरभि की जिद व घर वालों से उसके व्यवहार के कारण उसने अलग ही होने में भलाई समझी। अतः सुरभि के साथ किराये के कमरे में रहने लगा।
एक साल बाद सुरभि गर्भवती हुई। डाॅक्टर को दिखाया तो उसने कहा, "केस बिगड़ा हुआ है, इन्हें आराम की सख्त जरूरत है।"
किसे बुलाया जाये समस्या थी, लक्ष्मण के घर वालों को सुरभि पसंद नहीं करती थी, मायके वालों ने अपनी मजबूरी जता दी।दुबारा डाॅक्टर को दिखाया तो उसने चेतावनी दे दी। थक-हार कर लक्ष्मण ने घर वालों को बताया। सुरभि बोली, "आयेगा कौन वही बाँझ?"
लक्ष्मण ने मजबूरी जताते हुए कहा, "सुरभि, बात समझा करो, चलो मान लेता हूॅ भाभी ही आयेंगी, लेकिन मत भूलो कि मौके पर गधे को भी बाप कहना पड़ता है।"
दूसरे दिन कमला पहुंच गई।पूरा काम संभाल लिया।लक्ष्मण से बोली, "देवर जी, आप अपनी नौकरी देखिए बस।सुरभि को मैं देख लूंगी।"
वह सुरभि की सेवा-सुश्रुषा में लग गयी। सुरभि को काम न करने देती। अबकी डाॅक्टर ने कहा, "हालत में सुधार है।बस बच कर रहिएगा।"
धीरे-धीरे दिन आ गया, सुरभि अस्पताल में भर्ती हो गई, कमला उसके साथ रहती।डाॅक्टर ने कहा, "ऑपरेशन होगा।"
सुरभि घबड़ाई, कमला समझाती , "कुछ नहीं होगा, मैं हूॅ।"
ऑपरेशन से बच्चा हुआ, सुरभि बहुत देर बाद बेड पर आई, होश आने पर बच्चे को देखा, लेकिन कमला को न देखकर बोली, "दीदी कहाँ है?"
कोई समझ नहीं पाया किसे पूछ रही है? वह बोली, "कमला दीदी को पूछ रही हूॅ।"
सभी भौंचक्के रह गए, कमला के लिए सुरभि के मुंह से  "कमला दीदी"  सुनकर, लक्ष्मण ने बताया, "बाहर बैठीं हैं, उन्होंने कोई बच्चा नहीं जन्मा है न इसलिये बच्चे को छूते डर रहीं हैं।"
सुरभि बोली, "बुला दो"  उसकी ऑखों के कोरों से ऑसू बहने लगे।
तभी कमला आ गई, सुरभि ने उसे अपने पास बुला लिया, बच्चे को उसकी गोद में दे दिया, कमला समझ न पाई क्या हो रहा है?
सुरभि बोली, "दीदी, यह बच्चा तुम्हारा ही है।अगर तुम न आती  तो न मैं रहती न यह बच्चा।"
कहकर वह सुबकने लगी, पता नहीं कमला का एक हाथ सुरभि के बालों को कब सहलाने लगा।
उसे पता तब चला जब सुरभि ने कहा, "दीदी क्षमा----------"
आगे न बोल सकी।
कमला ने कहा,"पगली कहीं की।"

आज के लिए इतना ही...धन्यवाद
अगर आपको यह पोस्ट अच्छी लगी हो तो कृपया कमेंट और शेयर करें... सुधीर श्रीवास्तव

ऐसे ही और कहानियां पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करे