Saturday, August 31, 2019

प्यार हो गया

प्यार हो गया

                                                                       ----------------

Physical attraction

              

रीमा, राजकुमार से हद से ज्यादा प्यार करती थी। क्लास रूम हो या बाहर उसके ही ख्यालों में खोई रहती थी। ऐसा होता भी क्यों न राजकुमार नाम का ही राजकुमार नहीं था, देखने में भी राजकुमार था। गोरा-चिट्टा, लम्बा, घुंघराले बाल, बातचीत का सलीका, रहन-सहन, हँस-मुख सब अच्छाइयां तो थी उसके अन्दर। दोस्तों से घिरा रहता है, दोस्त तो दोस्त लड़कियां भी उसकी दीवानी रहतीं थीं, अमीर घर का लड़का है, राजकुमार सो पैसे भी दोस्तों के बीच खूब खर्च करता रहता था। ऐसा नहीं कि लड़कियां उसकी दीवानी भर थीं कई लड़कियों से प्रगाढ़ सम्बन्ध थे, उसके। रीमा का प्यार एक तरफा था, राजकुमार से कभी बात तक नहीं हुई थी, लेकिन दीवानापन था कि कम होने का नहीं ले रहा था। ख्यालों में राजकुमार तो ख्वाबों में राजकुमार हर जगह राजकुमार।
राजकुमार एक दिन अपने दोस्तों के साथ आ रहा था। तभी रीमा रास्ते में पड़ गई। ऑखें एक क्षण के लिए उससे टकरा गई रीमा सिहर गई। उसका प्यार परवान चढ़ने लगा। धीरे-धीरे राजकुमार के नजदीक आती गई। दोनों एक-दूसरे को दिलो-जान से चाहने लगे। कभी बाग में तो कभी किसी माॅल में मिलने लगे। राजकुमार उसे बार-बार छूने की कोशिश करता लेकिन वह "शादी के बाद" कह कर टाल जाती।
इसी बीच रीमा के पापा उसकी शादी के लिए दौड़-धूप करने लगे। रीमा ने पापा से साफ कह दिया, "वह राजकुमार से ही शादी करेगी।"
पापा ने पूछा, "कैसा लड़का है?"
रीमा ने कहा, "बहुत अच्छा, हैंडसम हैं, सुन्दर है, हँस-मुख है।क्या नहीं है उसके अन्दर।"
पापा ने कहा, "जीवन-साथी के रूप में देखो।"
रीमा ने कहा, "देख लिया है पापा, बहुत अच्छा जीवन साथी होगा।"
पापा ने कहा, "तब ठीक है।"
लेकिन पापा चैन से नहीं बैठे। राजकुमार के पीछे लग गये। उसकी दिनचर्या पर ध्यान देने लगे।
एक दिन पापा ने रीमा से कहा, "बेटा, आज शाम को होटल चलना है। जल्दी घर आ जाना।"
उस दिन पापा उसे एक होटल ले गये। खाने के लिए ऑर्डर दिया, तभी पापा की नजर राजकुमार पर पड़ी जो कुछ दूर पर पाँच लड़कों के साथ शराब पी रहा था, पापा ने रीमा को इशारा करके राजकुमार को दिखाया, रीमा राजकुमार का यह रूप देख आश्चर्य चकित रह गई।
पापा बोले, "अब क्या कहती अपने राजकुमार के लिए?"
रीमा ने कहा, "पापा, जो उचित समझें करें, मैं रास्ता भटक गयी थी।"
पापा ने कहा, "तुम केवल शारीरिक सुन्दरता देख रही थी, मैं तुम्हें यहाँ उसके मन की सुन्दरता दिखाने लाया हू।"
रीमा ने भावुक होते हुए कहा, "बहुत बदसूरत।"

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Friday, August 30, 2019

सभ्यता

सभ्यता-------------

old couple in plane

हवाई जहाज चलने को था।सुधांशु के साथ एक वृद्ध दम्पति जहाज की सीढ़ियां चढ़ रही थी।सुधांशु बूढ़ी औरत को एक हाथ से पकड़ कर चढ़ा रहा था।लोग अचम्भित थे।कहाँ पढ़ा-लिखा अप-टू-डेट जवान तो कहाँ गांव-देहात के लगने वाली वृद्ध दम्पति।लेकिन लोगों की चिन्ता न करते हुए सुधांशु वृद्ध दम्पति में खोया हुआ था।न कोई लाज न शर्म।लगता था वह वृद्ध दम्पति पहली बार जहाज में चढ़ रही थी।सुधांशु ने वृद्ध दम्पति को पूरे मनोयोग से जहाज पर चढ़ा लिया।
सीट पर उन्हें बैठाने के बाद खुद भी बैठ गया।सीट बेल्ट भी उन्हें बाँध दी।अन्य यात्री सुधांशु की इस तन्मयता को आश्चर्य और मनोयोग से देख रहे थे जैसे कोई फिल्म चलती हो।जहाज उड़ने को हुआ तो दम्पति सीटों पर ऐसे बैंठे थे जैसे डर रहें हों।चेहरे पर उलझन और अजूबा साफ नजर आ रहा था।पर सुधांशु उन्हें हिम्मत दिलाते कहता,"बस एक मिनट चिन्ता की कोई बात नहीं।"
ऐसा लग रहा था कि दम्पति खुद का सामंजस्य जहाज में बैठे लोगों नहीं बैठा पा रही थी।हीन भावना से ग्रस्त दम्पति को कुछ समझ में नहीं आ रहा था।किन्तु सुधांशु किसी की चिन्ता न करते हुए उन्हीं दोनों में व्यस्त था।जिससे दम्पति को ताकत सी मिल रही थी।
उसी समय एक एयर होस्टेज से,जो बहुत देर से यह सब देख रही थी,ने सुधांशु से अंग्रेजी में पूछा,"ये लोग आपके कौन हैं?"
सुधांशु बोला,"मेरे माँ-बाप।"
एयर होस्टेज ने कहा,"लगता तो नहीं कहाँ आप कहाँ ये लोग?"
सुधांशु बोला,"सच में मैडम,ये मेरे माँ-बाप ही हैं।इन पर मुझे गर्व है।इन्होंने ही मुझे इस काबिल बनाया है कि आप इस तरह के प्रश्न कर रहीं हैं।"
जहाज में लोगों की नजरें सुधांशु पर उठ गयी।अपने माँ-बाप के प्रति उसके समर्पण पर वे भाव-विभोर हो गये।

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Wednesday, August 28, 2019

यमराज आये घर मेरे

यमराज आये घर मेरे
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Yamraj

यमराज आये घर मेरे,
हैरान परेशान पसीने से तरबतर,
जाड़े का मौसम था,
लोगों ने दौड़ाया था।
मैं बोला,
"महाराज,
आप यहाँ,
क्यो पधारे हैं,
यहाँ तो कोई मरने को तैयार नहीं है,
फिर क्या करने आयें है?
जाड़े के इस मौसम में,
ऊनी वस्त्र भी नहीं पहनें हैं,
फिर भी पसीने-पसीने,
क्यों हो रहें हैं?"
यमराज बोले,
"किसी की मौत को छोड़ो
अभी तो अपनी जान के लाले पड़े हुए हैं,
तुम्हारी इस पृथ्वी से दूत मेरा,
न जाने किसे ले गया है,
उसने यमलोक को नरक बना दिया है।
लगता है कोई नेता है,
पहुंचते ही उसने चुनाव करवा दिया,
जीत कर चुनाव को,
खुद यमराज बन बैठा है,
अब मुझ हारे प्रत्याशी की पुरानी फाइलें देख रहा है,
मैंने कितने गबन किये हैं,
उनको भी खोज रहा है,
जेल जाने से मैं डरता हूॅ,
भाग कर पृथ्वी पर आया हूॅ।
यहाँ पर तो यह हालत है,
देखा लोगों ने मुझको,
चिल्ला पड़े,
'इसने ही मेरे भाई को मारा,
इसने ही मेरे बाप को मारा'
और दौड़ा लिया मारने को,
अब मेरी जान के लाले पड़े हुए हैं,
और मैं मारा-मारा फिर रहा हूॅ।"

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Tuesday, August 27, 2019

मैं पहुंचा चित्रगुप्त के द्वार

मैं पहुंचा चित्रगुप्त के द्वार

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Chitra gupt
Chitragupt

मुझे,
अपने कर्मों का लेखा-जोखा देखना था,
पहुंच गया चित्रगुप्त के द्वार,
मैंने देखा भीड़ वहाँ पर,
मेरे तो छक्के छूट गए।
लोग पसीने-पसीने हो रहे थे,
मैं हैरान रह गया,
दरबान से बोला,
"कितनी भीड़ है यार,
अन्दर जाना तो मुश्किल है? "
वह बोला,
"यह नरक द्वार है,
ऐसी ही भीड़ होती है।
मानव जाति ऐसी कुकर्मी,
मरती है,
और,
यहाँ पर वेटिंग लिस्ट में पड़ती है,
इससे अधिक भीड़ तो अन्दर है,
कुछ को दाखिला मिल गया है,
कुछ वेटिंग लिस्ट में अभी पड़े हैं।
यह तो अभी-अभी आये हैं,
फार्मेल्टी निभा रहे हैं,
वह देखो,
वह स्वर्ग द्वार है,
अब बिलकुल खाली रहता है।
नहीं तो,
सतयुग में यही हालत वहाॅ की थी,
कलियुग क्या आया,
सारी भीड़ यहीं चली आई।"
मैं जीता-जागता मनुष्य था,
आदत से मजबूर था,
दरबान को धोखा देकर,
स्वर्ग द्वार से,
चित्रगुप्त के पास पहुंच गया।
बिजी थे बेचारे,
सर उठाने की भी फुर्सत नहीं थी,
बोले,
"अगला"
मैं बोला नहीं,
पर,
परिचय की पूरी लिस्ट थमा दिया,
उन्होंने सब देख डाला,
आधार, पैन कार्ड तथा वोटर आई डी,
राशनकार्ड, पासपोर्ट, बिजली का बिल,
पानी का बिल,टेलीफोन का बिल,आदि-आदि,
और संतुष्ट हो गये।
मेरा बहीखाता खोला,
बोले,
"तूने केवल पाप किये हैं,
पुण्य का तो नामोनिशान नहीं है।"
मैं बोला,
"बिल्कुल गलत है,
दो-तीन पुण्य भी किये हैं मैंने।"
वे बोले,
"तेरे उन पुण्यों ने,
तेरे कुछ पापों को धो दिया है,
तू तो घोर नरक में जायेगा।"
मैं बोला,
"मैं यह देखने आया हूॅ,
पुण्य कितने किये हैं मैंने,
और ब्याज सहित कितने होतें हैं,
अजी,
छोड़िये मेरे पापों को,
उन्हें दूसरे के खाते में डाल दीजिए,
तथा उपाय और बतायें,
जिससे मेरे पुण्य बढ़ जायें,
ये चुपके से ले लीजिए,
पूरे पचास हजार हैं,
लेकिन नर्क में मत डालिए।
पृथ्वी पर तो यह खूब चलता है ,
बाबू हो या अधिकारी हो,
ऐसे ही काम करतें हैं।"
गुस्से में उन्होंने,
सर उठा कर देखा,
फिर चिल्लाये,
"यह जीवित मनुष्य कैसे आया है,
भ्रष्टाचार फैला रहा।"
दरबानों ने मुझे उठा कर फेंका,
मैं सीधा बिस्तर पर गिरा,
सोचने लगा,
आखिर,
मैंने क्या गलत कर डाला,
कि,
चित्रगुप्त जी नाराज हो गए,
पृथ्वी पर,
बाबू और अधिकारी,
सभी तो रिश्वत खातें हैं।

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                       चित्रकार
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एक चित्रकार जिस वक्त कोई चित्र बनाता है चाहे काल्पनिक हो या किसी को दिमाग में रखकर।वह चित्र बनाते समय चित्र में ही खो जाता है।उस समय वह किसी की दखलंदाजी पसंद नहीं करता बल्कि एकाग्र चित्त होकर चित्र में रंग भरने में व्यस्त रहता है।निश्चित है कि उसका दिमाग बँटा नहीं कि चित्र को मनचाहा रूप नहीं दे पायेगा चित्र बिगड़ भी सकता है।उस समय उसके दिल का कष्ट तथा दिमाग की उलझन वही समझ सकता है दूसरा कोई नहीं।
ठीक इसी प्रकार यह हमारा जीवन एक चित्र है और हम इसके चित्रकार।यह चित्र हमें ही बनाना होता है।जीवन चित्र बनाने वाले को जीवन को बनाने में इतना मशगूल रहना चाहिए कि उसे अपना ही होश नहीं नहीं रहना चाहिए।उसका एक ही लक्ष्य होना चाहिए अपना जीवन संवारना।मैंने तो खुद अपने ऊपर आजमाया है मैं वह चित्रकार हूॅ जो जीवन चित्र बनाते समय चित्र से दिमाग हटा चुका हूॅ और अपना जीवन जैसा कि अब अनुभव करता हूॅ वैसा नहीं बना सका जैसी मेरी इच्छा थी या बना सकता धा।बिगाड़ बैठा।
जीवन चित्र बिगड़ने का एहसास चित्र बनाते समय नहीं होता है।अनुभव होता है तब जब वक्त बीत जाता है।एक उम्र के बाद।जब हम पिछला बीता जीवन याद करतें हैं तो पाते हैं जीवन बनाते समय कहाँ-कहाँ हमने गलत रंगों का उपयोग किया था तब यदि हम संवेदनशील है तो सिवाय पछताने के कुछ नहीं बचता।अन्जाने में ही अपना जीवन बिगाड़ते समय हम गलत रंगों का प्रयोग कर बैठतें हैं और वही बिगड़ा रंग उस समय अच्छा लगता है।बाद में हम जब जीवन चित्र को हकीकत का जामा पहनाने लगतें हैं और जब जामा खुद को ही अच्छा नहीं लगता तब उसे स्वीकार करने के अलावा कोई उपाय नहीं रह जाता है।यही सोचकर कि किस्मत में यही लिखा था।
हमें अपना जीवन चित्र बनाने की कोशिश करनी चाहिए यह सोचकर नहीं कि होगा वही जो किस्मत में लिखा होगा।यदि एक चित्रकार यही सोच ले तो कभी अच्छा चित्र नहीं बना पायेगा।

Monday, August 26, 2019

डॉक्टर साहब


                   डॉक्टर साहब 



    

आशा को रोहित का शाम को देर से घर आना अच्छा नहीं लगता था। एक तो दिन भर घर में अकेले रहना, शाम को रोहित का इंतजार करते-करते ऊब जाना, तब कहीं रात को देर से रोहित का आना बहुत उबाऊ लगता था। बहुत समझाया रोहित को पर वह यही कहता, "मैं एक सरकारी डाॅक्टर हूॅ, कोई न कोई मरीज आ ही जाता है, जिसे देखने के लिए रूकना पड़ता है।"
आशा कहती, "तुम्हीं तो एक हो नहीं और भी तो डॉक्टर हैं तुम्हारे अस्पताल में? वे कैसे जल्दी आ जातें हैं।"
रोहित कहता, "आशा, पता नहीं इन मरीजों को मेरा नाम कौन बता देता है? जिस मरीज को देखो 'डाॅक्टर रोहित को ही खोजता है, पता नहीं यह मेरे हाथ का कमाल है या ऊपर वाले की देन?"
आशा कहती, "कुछ भी हो तुम्हें जल्दी घर आना पड़ेगा, घर में मैं तुम्हारा इंतजार करती हूॅ, इसका भी ध्यान देना चाहिए तुमको, मैं भी इंसान हूॅ वह भी तुम्हारी पत्नी कोई नौकर नहीं।"
रोहित ने कहा, "ओ के बाबा, कल से ध्यान रखूँगा, प्राॅमिस।"
दोनों की कहा-सुनी खत्म हो गई। दूसरे दिन से रोहित समय से घर आने लगा। आशा खुश रहने लगी लेकिन रोहित ऊपर से खुश दिखता अन्दर से खुश न रहता, सोचता रहता, "आज उस मरीज को बिना देखे आया हूॅ न जाने कैसा होगा?"
लेकिन चिन्ता को आशा के कारण चेहरे पर न आने देता।अब आशा रोज ही शाम को रोहित के साथ घूमने-फिरने जाने लगी ।बहुत खुश रहती।
एक बार आशा के माँ-बाप घर आये।आशा रोज ही शाम को उन्हें घुमाने ले जाती रोहित भी रहता। सभी खुश रहते। इसी बीच आशा का जन्म दिन पड़ गया। रोहित ने सुबह-सुबह गुलाब के फूल से विश किया।आशा बहुत खुश हुई जिन्दगी का मजा आने लगा। रोहित ड्यूटी पर जाने लगा तो आशा ने कहा, "आज जरा जल्दी आ जाना, माँ-पिताजी के साथ बाहर चलेंगे और होटल में खाना खायेंगे।"
वैसे तो आशा होटल का भोजन पसंद नहीं करती है चूंकि शादी के बाद उसने यह प्रस्ताव पहली बार रखा था अतः रोहित शाम को जल्द ही घर आ गया। सभी लोग बाहर जाने को तैयार हुए तभी एक गरीब पति-पत्नी अपने छोटे बच्चे को गोद में लेकर आ गये।
रोहित से बोले, "डाॅक्टर साहब, बच्चा बहुत बीमार है देख लीजिए।"
रोहित ने कहा,"कल अस्पताल आना, मैं जरूरी काम से जा रहा हूॅ।"
दम्पति बोली,"डाॅक्टर साहब, बहुत देर हो सकती है।"
रोहित बोला,"तो मैं क्या करूँ?
दम्पति बोली, "डाॅक्टर साहब, इतने निष्ठुर मत बनिये, आप तो देवता हैं, मरीजों का ध्यान बहुत देते थे, यह आपको क्या हो गया है? "कहकर दोनों पति-पत्नी ने बच्चे को रोहित के पैरों पर रख दिया।
रोहित असमंजस की स्थिति में आशा को देखने लगा।
आशा बोली, "देख लो, कुछ देर बाद चलेंगे।"
रोहित ने बच्चे को देखा बोला, "अस्पताल में भर्ती करवाना होगा, डॉक्टर कपूर होंगे वह देख लेंगे।"
दम्पति बोली, "डाॅक्टर साहब, आप देख लीजिये अस्पताल चले चलिये, आपका पूरा खर्च देंगे, आपके हाथ में देवता रहतें हैं।क्या बच्चे की जिन्दगी से आपका कहीं जाना अधिक आवश्यक है? आप जाइये हम आपके आने का इंतजार करेंगे, लेकिन दिखायेंगे तो आपको ही।"
रोहित बच्चे को अस्पताल ले जाना चाहता था लेकिन आशा के कारण रूका हुआ था।
आशा थी तो इंसान ही ऊपर से औरत, द्रवित हो गई, इशारों में जाने को कह दिया, रोहित अस्पताल चला गया।
बहुत रात गये आया, तो आशा ने पूछा, "बच्चा कैसा है?"
रोहित बोला, "बहुत अधिक बीमार था, तबियत कुछ सुधरी तब आया हूॅ अफसोस मैं तुम्हारे बर्थ डे में शामिल न हो सका।"
आशा उससे लिपट कर बोली, "मेरे बर्थ-डे से जरूरी उसकी जिन्दगी थी, आज मैंने जाना तुम देर से क्यों आते थे, तुम सच में देवता हो।"

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Sunday, August 25, 2019

मैं तो मरने वाला था

मैं तो मरने वाला था
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Yamraj Pic
Yamraj: God of Death


अरे,
आप तो चिहुंक पड़े,
लेकिन बात सही है, 
कल रात मैं मरने वाला था।
सोया था गहरी नींद में,
दिन भर का थका हुआ था, 
बिल्कुल बेसुध था,
होश भी नहीं था मुझको।
मैंने देखा, 
दरवाजे पर भैंसे पर सवार,
एक अजीबो-गरीब व्यक्ति आया है, 
सामने वाले से मेरा पता पूछ रहा था, 
कुछ-कुछ पहचाना सा लगता था, 
याद आया,
टीवी पर अक्सर आता है, 
और, 
यमदूत कहलाता है।
सामने वाले उसे बताने से कुछ भी,
डर रहे थे।
मैं खुद बाहर आ गया, 
बोला,
"कौन हो भाई, 
मुझे क्यों पूछ रहे हो?"
वह बोला, 
"यमदूत हूॅ, 
तुझे लेने आया हूॅ, 
चल अब मरने को तैयार हो जा।"
मैं बोला, 
"अबे,
तू पागल है क्या,
जो मुझे लेने आया है?"
वह सकपका गया,
बोला, 
"मैं पागल नहीं,
यमराज की आज्ञा हुई है।"
मैं बोला, 
"कौन यमराज बे,
क्या मैं उसके बस का हूॅ, 
साले,
बाप का कहा तो कभी माना नहीं,
तेरे यमराज की मानूंगा क्या?"
लेकिन,
वह जिद्दी था यमराज का दूत जो था,
मैं भी जिद्दी था,
आखिर मनुष्य जो था,
अपने आगे किसी को कुछ समझा नहीं,
इसको क्या समझता मैं?
बस,
हम दो जिद्दी टकरा गये,
अन्तर केवल इतना था,
मैं मनुष्य वाकई बहुत जिद्दी,
वह ड्यूटी से मजबूर था।
वह मारने को तैयार था,
पर,
मैं मरने को तैयार न था,
मैं बोला, 
"पहले यह तो बता,
यमराज पागल है क्या?
बूढ़ा बाप मेरा अभी जिन्दा है,
वह,
जवान बेटे को मरवा रहा?
कभी-कभी मैंने देखा है, 
छोटे-छोटे बच्चों पर तरस न खाकर, 
वह जवान बाप को उठवा लेता है क्यों?"
यमदूत खिसिया गया बेचारा, 
तुरन्त यमराज को मोबाइल खड़खड़ा दिया,
बोला,
"सरकार,
अब की तो मेरा,
पक्के मनुष्य से पाला पड़ गया,
न बाप की सुनता है, 
न आपको कुछ समझता है,
बहस ऊपर से करता है, 
यह मेरे वश का नहीं,
अब आप खुद ही इसे ले जाइये।"
यमराज आये,
बोले,
"बेटा,
दिन तेरे हुए, 
चल,
मेरे साथ चलना है तुझको।"
मैं बोला, 
"तेरा नौकर हूॅ क्या?
माँ-बाप भाई-बहन को तो कुछ समझा  नहीं,
तुझे क्या समझूंगा? 
अच्छा,
चल यही बता दे,
बाप के दिन पूरे नहीं होते,
बेटे के क्यों पूरे हो जाते हैं,
कभी-कभी  ८०-९० साल के बाप के दिन पूरे नहीं होते,
कभी-कभी ३०-४० साल के बाप के दिन पूरे क्यों हो जातें है?"
तमतमा उठे यमराज भी,
बोले,
"यह तो पक्का मनुष्य है,
ऐसे तो यह न मानेगा।"
तभी पत्नी की आवाज मे कानों में पड़ी, 
"अजी,
अब उठो भी,
आठ बज गये,
ऑफिस नहीं जाना हैं क्या?"
यमराज चौंक पड़े तुरन्त ही,
"अरे बाप रे, 
यह कहाँ से आ टपक पड़ी।"
कहकर घबड़ा उठे,
और मुझे छोड़कर भाग गये।।

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                  कारवाँ गुजर गया
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राधेमोहन जी हैं तो रईस खानदान से।बाप-दादा की अपार सम्पत्ति है उनके पास।इसी रईसी और बाप-दादा के दुलार में वे पढ़ नहीं पाये।हाईस्कूल ही बहुत मुश्किल से पास कर पाये।चूँकि कुछ न कुछ करना पड़ता है जीविका चलाने के लिए।हालाँकि जीविकोपार्जन के लिए भी उन्हें मेहनत करने की आवश्यकता नहीं थी किन्तु पत्नी को उनका घर में निठल्ला बैठना अच्छा नहीं लगता था।अतः उसके कहने-सुनने पर कचहरी में स्टाम्प पेपर बेचने लगे।सुबह दस बजे जाते तो शाम को छः बजे आते।कोई खास आय तो होती नहीं थी भगवान का दिया इतना अधिक था कि कोई कमी नहीं महसूस होती थी बस नाम था कि,"कुछ करतें हैं।"
घर कैसे चल रहा है उनको कोई मतलब नहीं था पत्नी ही सर्वे सर्वा है।खाने-पीने के शौकीन थे बढ़िया खाते हैं।बातूनी बहुत हैं सो महफिल जमाने के शौकीन हैं।रोज ही शाम को दोस्तों के साथ घर में ही महफिल जमाते हैं।पत्नी लाख मना करती पर राधेमोहन जी मानने वाले कहाँ हैं।पत्नी ने कुछ दिन तो देखा फिर इन पर पाबंदियां लगानी शुरू कर दी।जेब खर्च के अलावा एक पैसा नहीं देती थी।
चूँकि राधेमोहन जी ठहरे महफिल बाज आदमी अतः महफिल में शराब न चले कैसे हो सकता है।पत्नी ने जब से पाबंदी लगानी शुरू कर दी बेचारे परेशान रहने लगे।महफिल में वह मजा न रह गया ऊपर से दोस्तों की छींटाकशी सुननी पड़ती," जोरू का गुलाम,बीबी की पालतू बिल्ली,डरपोक" सुनते-सुनते ऊबने लगे,गुस्सा भी आने लगा।जब गुस्सा आता तो कोई न मिलता सारा गुस्सा पत्नी से झगड़ा करके उतारते।
कहते,"मेरा खाना-पीना दूभर हो गया है।सारे दोस्त हँसी उड़ातें हैं।क्या-क्या कहतें हैं तुम क्या जानो।मन में तो आता है डूब मरूं।"
पतनी कहती,"सब मतलब के दोस्त हैं दुष्ट।कभी अपने घर में ही महफिल जमाया है कमीनों ने?जब तक पैसा है दोस्त हैं नहीं तो पूछेंगे भी नहीं।"
रोज-रोज दोस्तों की बेइज्जती सुनते-सुनते राधेमोहन एक दिन आपे से बाहर हो गए।बोले,"चुप----------मेरे दोस्तों को कुछ कहा तो।सब मेरे ऊपर जान देते हैं।महफिल की मैं शान रहता हूॅ।जिसको देखो मेरे आगे-पीछे लगा रहता है।"
पत्नी कहती,"तुम्हारे नहीं पैसों के आगे-पीछे लगे रहतें हैं मक्कार।।"
बस राधेमोहन का गुस्सा आपे से बाहर हो गया और एक तमाचा पत्नी को जड़ दिया।पत्नी कुछ कहती या सुनती उससे पहले घर से बाहर निकल गये।सुबह आये बिना पत्नी से कुछ बोले कचहरी चले गये।शाम को भी गुस्सा शांत न हुआ था बल्कि शराब पी कर आये थे।दोस्तों को निमंत्रण दे आये थे।अतः दोस्त महफिल में भाग लेने आ गये थे।घर से महफिल के लिए पैसे चुराने चाहे लेकिन पैसे कहाँ रखे थे खोज न पाये।लगे पत्नी के हाथ-पैर जोड़ने,"इज्ज़त का सवाल है।दोस्त जुट चुके हैं।बहुत बेइज्जत हो जाऊँगा।"
पत्नी कुछ सुनने को राजी नहीं हो रही थी।बोली,"इन्हीं दोस्तों के लिए ही तो तुमनें मुझे मारा अब इन्हीं के लिए मैं पैसे दूं।चलो हटो पैसा नहीं है न ही दूंगी।"
राधेमोहन बोले,"जमीन बेंच दूंगा।"
पत्नी ने कहा,"हिम्मत है तो बेंच कर दिखाओ।"
यह चुनौती वे सह न पाये।बगल वाले कमरे में दोस्त जुटे थे।कुछ इसी कमरे के दरवाजे से झांक रहे थे।बेइज्जती घोर बेइज्जती।अपमान घोर अपमान।राधेमोहन गुस्से से काँपने लगे।बगल में पड़ा फावड़ा उठाया और पत्नी के सर पर दे मारा।पत्नी वही ढेर हो गई।दोस्त भागे किसीने पुलिस को खबर दे दी।वह राधेमोहन को गिरफ्तार कर ले गयी।कोई दोस्त नजर नहीं आया।सभी भाग चुके थे।
यही है गलत दोस्त और आदत का अंजाम।

युवा दम्पति का अपने बुजुर्गो के प्रति दायित्व

युवा दम्पति का अपने बुजुर्गो के प्रति दायित्व
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Old Age

अगर देखा जाये तो बहुत कम पति-पत्नी ६०-६५ साल के बाद एक साथ रह पातें हैं नहीं तो अधिकांश पति-पत्नी में कोई न कोई साथ छोड़ देता है। दूसरा शेष जीवन अकेले ही सफर करता है। यह वह उम्र होती है जब पति-पत्नी को एक-दूसरे की सबसे अधिक जरूरत रहती है। जवानी तो बच्चों की देखभाल, पढ़ाने-लिखाने मे, रिश्तेदारियां निभाने में बीत जाती है। इस उम्र में हर व्यक्ति पिछली जिन्दगी का लेखा-जोखा देखने के साथ-साथ वर्तमान शान्ति मय चाहता है। जिसमें बीते जीवन की गलतियों का अफसोस करता है, और वर्तमान जीवन में अपनों का प्यार चाहता है।
इस उम्र में हर पति-पत्नी अपने सुख-दुःख आपस में बाँट लेतें हैं। कई बातें ऐसी होतीं हैं जिन्हें वे दूसरे किसी व्यक्ति से नहीं कह सकते, मसलन-यदि बेटे-बहू से कोई परेशानी हो, बेटी-दामाद से कोई परेशानी हो तो किससे कहेंगे? जीवन साथी से ही तो। लेकिन जीवन साथी ही न हो तो? वह यह बात किसी से नहीं कह पायेगा, नतीजा वह अन्दर ही अन्दर घुटेगा। जिससे वह चिड़चिड़ा हो जायेगा। जिसे युवा दम्पति पसंद नहीं करते। जरा अनुमान लगाइये जो बुजुर्ग दम्पति पैतीस-चालीस साल साथ रहकर एक-दूसरे से बिछुड़ जाये तो दूसरा कितना अकेला पन महसूस करता होगा?
ऊपर से युवा दम्पति का उससे यह उम्मीद करना कि वे घर के काम में हाथ बँटायेंगे, कुछ जिम्मेदारियां निभायेंगे, उसके लिए कितना कष्टकारी होता है कभी सोचकर देंखे।जिन्दगी भर तो उसने जिम्मेदारी ही तो निभाई है, जब उसके प्रति युवा दम्पति की जिम्मेदारी आ गई तो युवा दम्पति उसे बोझ समझने लगती है। वह अकेला ही घुटेगा किन अरमानों से अपने बच्चों को पाला होगा? अपने ही अरमानों को टूटता देख वह व्यक्ति कितना दुःखी होता है यह केवल वह अकेला व्यक्ति ही अनुभव कर सकता है।
अतः मेरा तो विचार है कि युवा दम्पति बुजुर्गो को बोझ न समझे वह भी तब जब वह अकेला हो, सहानुभूति और प्रेम रखे।

आज के लिए इतना ही...धन्यवाद
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Saturday, August 24, 2019

     गिरते हैं क्यों लोग
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ऊपर उठतें हैं लोग वही,
जो ऊँचा देखतें हैं,
गिरतें हैं लोग वही,
जो धरा छोड़ देतें हैं।
नजर रहे मंजिल पर,
मिल ही जायेगी,
गर जमीं भूले तो,
भटक जाओगे।
जाना कहीं था,
कहीं आ जाओगे,
अगर रास्ता भूले तो,
खो जाओगे।
मुश्किल बहुत है सफर जिन्दगी का,
चलना है कंटीली राहों पर,
काँटे चुभेंगे ठोकरें लगेंगी,
जो हार गये तो,
न कहीं के रहोगे।
हौसला बुलंद कर तू ऐ राही,
निकल चल कँटीली राहों पर,
हिम्मत न हार राहों से,
ऊँचाई की सोच,
पर,
नजर धरा पर रहे,
तो,
कोई शक नहीं,
ऊँचाइयां छू लोगे तुम।

मेरे हिन्दी के शिक्षक

मेरे हिन्दी के शिक्षक
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बात रहा हूॅ  ४३-४४ साल पहले की जब मैं इण्टर में पढ़ता था। मेरे हिन्दी के शिक्षक श्री रघुवंश मणि पाठक जी दुबले-पतले, एकहरा शरीर, लगभग पाँच फुट सात इंच लम्बे, चेहरा अण्डाकार हमेशा ही सफेद कपड़े पहनते थे। हिन्दी में डी लिट कर चुके थे। हालाँकि कि उनका चयन डिग्री कालेज में हो चुका था लेकिन पोस्टिंग होनी थी, सो पोस्टिंग होने तक हम लोगों को पढ़ाते रहे। हिन्दी के विद्वान थे ही सामाजिक ज्ञान भी उनका बहुत अच्छा था। प्रायः ही हम छात्रों को हिन्दी पढ़ाने के अलावा सामाजिक ज्ञान भी देते रहते थे। अब न जाने, हैं या नहीं,  मैं नहीं जानता। लेकिन ईश्वर से यही मनाता हूॅ कि उन्हें लम्बी उम्र दे क्योंकि उनकी जरूरत समाज को अब भी है। अभी ही नहीं हमेशा ही रहेगी।
आज मैं जो कुछ भी हूॅ उसमें उनका बहुत बड़ा योगदान है। हालाँकि मैं पढ़ने में सामान्य था। लेकिन उनकी बातें ध्यान से सुनता था। वे ऐसा पढ़ाते ही थे। कभी-कभी मैं अन्य विषय की कक्षा छोड़कर भाग जाता था। लेकिन उनकी कक्षा मैं नहीं छोड़ता था।क्योंकि हिन्दी के अतिरिक्त वे दुनिया दारी की बातें समझाते रहतें थे और मुझे हिन्दी कम दुनिया दारी की बातें अधिक अच्छी लगतीं थीं, अब भी लगतीं हैं।
उनकी बातें दिल में ऐसी बैठतीं कि यदि उन्हें अपनी जिन्दगी में प्रयोग करें तो जिन्दगी बन जाये।
अरे,
लगता है मैं राह भटक रहा हूॅ। शिक्षक महोदय की बात करते-करते अपनी बात करने लगा।
आइए,
उन्हीं की बात करता हूॅ।
एक दिन उन्होंने हम छात्रों से कहा, "एक सवाल करता हूॅ,  देखूँ उत्तर कौन दे पाता है? सवाल है कि, ईश्वर ने ऐसी कौन सी चीज बनाई है जो राजा या रंक सबको एक समान दी है? जो उसका जिस रूप में जितना प्रयोग करता है उतना ही वह उसी रूप में उपयोगी होता है।"
सभी छात्र चुप,  किसी को उत्तर समझ में नहीं आया, सभी सोचने लगे, कुछ छात्रों ने अपनी समझ से उत्तर भी दिया पर शिक्षक महोदय नकार गये।
लगभग दस मिनट प्रतीक्षा करवाने के बाद शिक्षक महोदय बोले, "मैं जानता हूॅ सवाल टेढ़ा है, इसलिए मैं खुद उत्तर देता हूॅ, उस चीज का जैसा जितना प्रयोग करोगे उतना ही वैसा बनोगे और वह चीज है...
                 
"एक दिन के चौबीस घण्टे"
           
न किसी को एक सेकेंड कम न एक सेकेंड अधिक, चाहो तो बनो चाहो तो बिगड़ो।

आज के लिए इतना ही...धन्यवाद
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Friday, August 23, 2019

पागल कौन?


   पागल कौन?
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मैं सड़क पर जा रहा था,
देखा,
एक कम दिमाग का आदमी,
वह भी सड़क पर जा रहा था,
बिल्कुल चुपचाप देखा था उसको।
न किसी से बोल रहा था,
बिल्कुल बेफिक्र सा लगता था,
दुनिया से मतलब नहीं था,
लगता था उसका कोई दोस्त नहीं है।
धूप बहुत तेज थी उस दिन,
सूर्य देव भी कड़क रहे थे,
सबका बुरा हाल था उस दिन,
पसीना भी नहीं सूख रहा था।
लगता,
उसको प्यास लगी थी,
पर नल नहीं दिख रहा था,
चाय की एक दुकान खुली थी,
जब वह प्यास सह न पाया,
चाय की दुकान पर पहुंचा,
प्यास बुझाने को उसने,
पानी का एक मग उठाया।
दुकान वाला चिल्ला उठा तब,
"भागो भागो भाग यहाँ से,
साला पागल कहाॅ से आया,
मग यह गन्दा कर डालेगा।"
वह बेचारा मग को रखकर,
हट गया तुरन्त वहाॅ से,
पानी भी नहीं पी पाया था,
प्यासा ही रह गया बेचारा।
मैं यह सब देख रहा था,
शान्त भाव से रूक गया था,
जब वह मग को रख कर,
वहाँ से चलने को वापस हुआ।
मैंने देखा उस दुकानदार ने ही,
उस मग के पानी को,
उस पागल पर फेंक दिया था,
अब वह पागल गाली बकता,
दुकान वाला हँसने लगा था,
वहाँ जो भी बैठा था,
वह सब भी हँसने लगे थे।
तब मेरे कुछ समझ न आया,
आखिर पागल कौन यहाँ पर,
उसे कहूँ या इन्हें कहूँ,
दिमाग वाले होकर भी,
हम सब कितने पागल होंते हैं?

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शक

शक
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Doubt in relationship

मेरे एक परिचित हैं रघुनाथ प्रसाद जी, दूसरे ऑफिस में काम करते हैं। उनकी अपने सहकर्मी इन्द्रजीत से बहुत अच्छी दोस्ती थी, साथ ही खाते साथ ही पीते, घर से बाहर वे अधिकांशतः साथ ही दिखते थे, सुख हो या दुःख एक-दूसरे के हर मौके पर एक पैर खड़े रहते थे। पारिवारिक सम्बन्ध थे दोनों में।कोई पर्दा नहीं था चाहे बहू हो, बेटी हो या पत्नी हो, हम लोग उनकी घनिष्ठता का मिसाल देतें थे।
एक बार रघुनाथ जी की लड़की की शादी पड़ी, इन्द्रजीत तन-मन-धन से उनके साथ लगे रहे। वही नहीं, उनका परिवार भी लगा रहा। यहाँ तक कि यूं समझा जाये कि रघुनाथ जी ने शादी की आधी से अधिक जिम्मेदारी इस परिवार को दे रखी थी। यह परिवार भी ईमानदारी से अपनी जिम्मेदारियाँ निभा रहा था चाहे इन्द्रजीत हों या उनकी पत्नी या बच्चे सभी जी-जान से लगे थे। पूरा समाज इन्द्रजीत और उनके परिवार की वाह वाही कर रहा था। तारीफों के पुल बाँध रहा था। अपनी जिम्मेदारियों के अलावा भी इन्द्रजीत का परिवार जहाँ कोई कमी देखता उसे दूर करने के लिए खुद ही बिना कहे लग जाता जैसे अपनी बेटी-बहन की शादी हो।
शादी के छह महीने बाद इन्द्रजीत अचानक काफी बीमार पड़ गये। अब रघुनाथ जी बारी थी। ऑफिस से छुट्टी ले ली, इन्द्रजीत की सेवा में लग गये। कई रात अस्पताल में ही रूक गये। डॉक्टर को जो भी जरूरत पड़ती खुद निःस्वार्थ भाव से पूरी करते। लेकिन ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। लाख प्रयास के बाद भी इन्द्रजीत नहीं बचे। उनके परिवार पर पहाड़ गिर पड़ा।
रघुनाथ जी ने तो जैसे सगा भाई ही खो दिया, इन्द्रजीत के परिवार का भी बोझ रघुनाथ जी के ऊपर आ गया। उस परिवार को भी समय देने लगे। दिन भर में दो-तीन बार उस परिवार का हाल लेने जाने लगे।
रघुनाथ जी पत्नी को यह न सुहाता, इसी बीच इन्द्रजीत का लड़का इंजीनियरिंग करने लगा। रघुनाथ जी की पत्नी को शक हो गया कि, "हो न हो, रघुनाथ जी ही उसे पढ़ा रहें हैं।" हालांकि कि इन्द्रजीत की पत्नी मृतक कोटे में नौकरी पा चुकी थी। लेकिन पत्नी के शक का इलाज रघुनाथ नहीं कर सके। पत्नी से रोज ही झगड़ा होने लगा।
इन्द्रजीत का लड़का इंजीनियर बन गया तो उसने बहुत अच्छा सा मकान बनवा लिया। रघुनाथ की पत्नी ने शक किया कि जरूर उसके पति की मदद से बना है। निश्चित रूप से इन्द्रजीत की पत्नी और रघुनाथ के सम्बन्ध सीमा पार गये हैं। यह शक इतना गहरा होता गया कि एक दिन पत्नी ने रघुनाथ से खूब झगड़ा किया।रघुनाथ सफाई देते रहे लेकिन वह न मानी बोली, "आज से तुमको आजाद करती हूॅ, जाओ उस कुलटा के साथ मौज करो।"
इतना बड़ा और भद्दा आरोप रघुनाथ नहीं सह पाये। पत्नी को तमाचा मार दिया। पत्नी को भी गुस्सा आ गया।दूसरे कमरे में जाकर दरवाजा बन्द कर लिया। रघुनाथ डरे कहीं ऐसा-वैसा न कर बैठे। पड़ोसियों की मदद से दरवाजा तोड़कर अन्दर घुसे तो पत्नी को फाँसी का फंदा तैयार करते देखा। हाथ-पैर जोड़कर उसे रोका-मनाया।आइंदा इन्द्रजीत के घर कदम न रखने की कसमें खाई। तब जाकर पत्नी शान्त हुई।
रघुनाथ जी को अब महसूस हुआ कि एक शक का ऐसा भी अंत हो सकता है।

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Wednesday, August 21, 2019

फुलवा

फुलवा
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gardener

मैं जब कभी फुलवा को देखता हूॅ वह अपनी बागवानी में दिखती। पौधों और फूलों में व्यस्त यही उसकी दुनिया है। किसी से अधिक न बोलती है, न कोई मतलब रखती है। छोटी सी दुनिया है उसकी। हालांकि बात आम है लेकिन जब से लोगों के मुंह से मैंने सुना है कि पहले बहुत हँस-मुख थी और सबसे प्रेम व्यवहार रखती थी लेकिन बच्चा न होने के कारण जब से उसके पति ने उसे छोड़ दिया है। वह रहस्यमयी हो गई है। शायद टोना-टोटका भी करती है। इसलिये उससे कोई बोलता भी नहीं न ही मतलब रखता है। सुनकर मेरे दिल में न जाने क्यों उसके प्रति रुचि पैदा हो गई। आज के समाज में टोना-टोटका! मैं नहीं मानता हूॅ। हालाँकि कोई यह न बता सका कि उसने कब किस पर टोना किया है। मैं एक जिज्ञासु प्रकृति का आदमी हूॅ, अतः उसकी टोना-टोटके की रहस्यमयी दुनिया को जानने की इच्छा पैदा हो गई। लेकिन पता कैसे हो? सोचने लगा।
एक दिन उसकी बागवानी में पहुंच गया। वह फूलों में व्यस्त थी, मुझपर कोई ध्यान नहीं दिया। उसका ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए मैंने कहा,"सुनिये।"
उसने मुझे आश्चर्य से देखा।सुन्दर थी जवान थी। मैं बोला,"पूजा के लिए एक फूल चाहिए।"
वह बोली, "मैं फूल तो किसी को देती नहीं। लेकिन चूँकि आज आप पहली बार आयें हैं, इसलिये देती हूॅ। वैसे ही यहाँ कोई नहीं आता, आपको देख कर आश्चर्य हो रहा है, क्या मेरे बारे में आपको किसी ने बताया नही?"
मैं बोला,"आज के जमाने में मैं उन बातों नहीं मानता।"
उसने एक फूल दिया। मैं लेकर चल पड़ा अपनी दुकान पर पहुंच कर उस फूल को गणेश-लक्ष्मी की तस्वीर पर चढ़ा दिया। मैंनें अनुभव किया कि आज मेरी दुकान अन्य दिनों अपेक्षा अधिक चली। सामान बहुत बिका आय भी बहुत हुई।
फिर तो सिलसिला चल पड़ा मैं रोज एक फूल फुलवा से माँग कर लाता दुकान पर चढ़ाता। मेरी आय बढ़ने लगी।मुझे शंका हुई यह फुलवा का टोना तो नहीं। किन्तु बढ़ती आय के लालच में मैं फुलवा से फूल लेता रहा। धीरे-धीरे हमारी और उसकी घनिष्ठता बढ़ती गई। मैं बिना पूछे ही फूल तोड़ने लगा।
कुछ दिनों के बाद फुलवा मुझसे खुल गयी बोली,"तुमने मेरे बारे में सुना तो होगा ही कि मैं टोना-टोटका करतीं हूॅ। लेकिन ऐसा कुछ नहीं है। मुझे यह सब नहीं आता, न जाने क्यों लोग हवा उड़ातें हैं। मुझे बच्चों से बहुत प्रेम है जब बच्चा न होने के कारण मेरे आदमी ने मुझे छोड़ दिया है, मैं इन फूलों से प्रेम करती हूॅ। यही मेरे बच्चे हैं।"
मैंने उसे अपनी बढ़ती आय के बारे में बताया तो उसने कहा, "सब ईश्वर की माया है, मैं तो बस इन फूलों को अपनी औलाद मानती हूॅ और औलाद माँ का नाम रोशन करतें हैं डुबोते नहीं।"
कुछ दिनों तक मेरे फूलों को लेने का क्रम चलता रहा। मैं अब अनुभव करने लगा लोग हम दोनों की घनिष्ठता को शक की नजरों से देख रहें हैं। मैंने फुलवा से फूल लेना बन्द कर दिया। दूसरे रास्ते से दुकान जाने लगा। आज उस रास्ते पर बहुत जाम लगा था अतः पुराने रास्ते से दुकान जा रहा था। फुलवा ने मुझे देख लिया आवाज लगाई मैं रूक गया तो बोली,"तुम कई दिनों से आये नहीं, क्या तुमने पूजा छोड़ दी है?"
मैंने उसे पूरी बात बताई कि,"लोग हम पर शक कर रहें हैं।"
वह बोली, "यह दुनिया है ऐसे ही शक करती है, इसका बस चले तो भाई-बहन को भी ना छोड़े। खैर, मैंने तुम्हें अपना भाई माना है, तुम्हारी इच्छा मुझे जो समझो।"
मेरे पास कोई उत्तर न था।लेकिन दूसरे दिन से उसकी बागवानी से फूल लेने लगा।

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           तुममें क्या बात है?
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तुममें क्या बात है ज़ानम,
हम नहीं जानते,
दिल क्यों तेरी यादों में खोया रहता है,
हम नहीं जानते।
सामने पड़ जाते हो जब भी,
एक घबड़ाहट सी होती है,
कुछ कहने का मन होता है,
पर,
ओंठ काँपने लगतें हैं।
दिल की बातें दिल में रहतीं हैं,
जुबां पर नहीं आतीं हैं,
राह तुम्हारी देखा करतें हैं,
अगर राह में पड़ जाते हो,
हम राह बदल देतें हैं क्यों?
क्या बात है तुममें ज़ानम,
तुम याद बहुत आते हो,
ख्वाबों में तुम आते हो,
सपने तुम्हारे आते हैं,
दिल यह बेचैन रहता है,
तुमसे मिल जाने को,
जब तुम दिख जाते हो,
ऑखें झुक जातीं हैं क्यों?
                       रेशम की शादी
                     --------------------
रेशम की शादी थी।माँ-बाप ने बड़ी दौड़े-धूप के बाद शादी तय की थी।बारात जनवासे में आ चुकी थी।सो घर में दौड़-धूप मची हुई थी।कहीं कोई कहीं कोई भाग रहा था।रेशम के दिल की धड़कन तेज हो गई थी।हालाँकि लड़का उसने देखा था लेकिन स्वभाव कैसा है लड़के का?नहीं जानती थी।ससुराल के लोग देखने में तो सज्जन लगते थे हकीकत क्या है भगवान जाने।यही सब सोच रही थी।चूँकि लड़का दिल्ली का रहने वाला है इसलिये उसके बारे में अधिक नहीं पता था सिवाय इसके कि वह सुन्दर है और अच्छी नौकरी में है।लेकिन स्वभाव के बारे में वह असमंजस की स्थिति में थी।बारात दरवाजे पहुंची तो बाराती नाच-कूद रहे थे।द्वार-चार लगने से पहले रेशम को अक्षत के चावल फेंकने के लिए लाया गया।वह चावल फेंक कर वापस चली गई।
लेकिन मन लड़के में लगा था।कैसा होगा उसका जीवन साथी?द्वार-चार खत्म हुआ।लड़का वर माला के स्टेज पर आ गया।हँसी-खुशी यह रस्म भी पूरी हो गई।लड़का फिलहाल उसे शरीफ ही लग रहा था।वह भविष्य के सपनों डूबी बहुत खुश थी जैसा जीवन-साथी चाहती थी वैसा ही लगता है।हँस-मुख हाजिर जवाब।एक लड़की को और क्या चाहिए भला।
रात में शादी के मण्डप में दुल्हा आ गया।रस्में अदा होने लगीं।सभी कुछ शान्त तथा खुशहाल माहौल में हो रहा था कहीं कोई कहा-सुनी नहीं।लोग लड़के वालों की तारीफों के पुल बाँध रहे थे।
कुछ देर बाद दुल्हन रेशम को शादी के मण्डप में लाया गया।शादी होनी शुरू हो गई।इसी बीच रेशम को लड़के के मुंह से शराब की गंध लग गयी।वह मण्डप से उठ गई।बोली,"मैं शराबी से शादी नहीं करूंगी।यह तो शराब पिये हुआ है।"
चारों ओर सन्नाटा छा गया।लोगों में कानाफूसी होने लगी,"कैसी लड़की है?माँ-बाप का नाम डूबो दिया।"
माँ-बाप ने लाख दुहाई दी,"मेरी इज्ज़त की बात है।बारात वापस हो गयी तो हम कहीं मुंह दिखाने नहीं रहेंगे।बहुत बेइज्जती हो जायेगी।जगहँसाई में हम जीने लायक नहीं रहेंगे।आत्महत्या कर लेंगे।"
रेशम उठकर अपने कमरे में आ गई।माँ भी पीछे-पीछे आ गयीं।रेशम ने माँ से बोली,"माँ तिल-तिल कर मरने से अच्छा है मेरा एकदम से मर जाना।क्या तुम्हारी बेटी इसके साथ तिल-तिल कर मरे तुम्हें मंजूर है?"
माँ ने कहा, "अगर बारात वापस हो गयी तो तुझसे शादी कौन करेगा करम जली?"
रेशम ने कहा,"तो क्या तुम चाहती हो मैं शराबी से शादी कर लूँ ताकि रोज मार खाऊँ?"
माँ निरुत्तर हो गयी।तभी रेशम के बाप आ गये बोले,"रहने दो रेशम की माँ, इसे मत समझाओ।लड़का वाकई शराबी है।रोज ही पीता है।अभी-अभी कुछ लोगों ने बताया है।गलती मेरी ही है मैं दूरी की वजह से लड़के के बारे में ठीक से पता नहीं लगा पाया।रेशम ठीक कर रही है।"
माँ बोली,"जो बारात आई है उसका क्या होगा? "
पिता बोले,"उनको मना कर दिया है।बहुत झगड़ा हुआ लेकिन इसके मतलब नहीं कि अपनी बेटी को हम आग में ढकेल दें।"
माँ बोली,"इसकी शादी?"
पिताजी बोले,"दूसरा लड़का खोजूंगा।जमाना बहुत आगे है।कोई न कोई लड़का मिल ही जायेगा।लेकिन अब की खूब ठोंक बजा कर शादी तय  करूँगा।"


Tuesday, August 20, 2019

लड़के वाले

                      लड़के वाले

                  
Ladke wale

मेरी कोई लड़की नहीं है।फिर भी लड़की वालों का दर्द समझता हूॅ। पहले तो बाप-भाई लड़की की शादी के लिए दौड़-धूप करतें हैं इस दरवाजे तो उस दरवाजे, दर-दर की ठोकरें खातें हैं, तब जाकर कहीं बात चलती है तो लड़के वाले पहले लड़की की फोटो तथा बायोडाटा माँग लेंगे। उसी से लड़की पसंद करेंगे। फिर कुण्डली माँग बैठेंगे। फोटो से लड़की नहीं पसंद आई तो कह देंगे गुण नहीं मिल रहें हैं। यदि गुण भी मिल गये तो दहेज की मांग, वह भी तय हो गया तो लड़की देखने को कहेंगे। अर्थात इतनी परीक्षाओं के बाद भी लड़की पसंद होती है या नहीं लड़की वाले का दिल घबड़ाता रहता है। कभी-कभी तो वह उत्तीर्ण हो जाती है कभी-कभी अनुत्तीर्ण, लड़के वाले कोई न कोई बहाना बनाकर उसे नापसंद कर देंते हैं। यह नहीं सोचते कि,"उस लड़की के दिल पर क्या गुजरेगी? "
मेरे एक सहकर्मी का लड़का  5'4" का है, उन्होंने लड़की देखने के बाद यह कहकर नापसंद कर दिया कि,"लड़की 5' की है।"
ऐसे लड़की का दिल तोड़ने वाले और उसे हतोत्साहित करने वाले लड़के वालों से मेरा नम्र निवेदन है कि पहले लड़की को अन्जान रखते हुए उसे परोक्ष रूप से जरूर देख लें। जो भी करना हो लड़की को अन्जान रखते हुए करें। क्योंकि आप भी लड़की वाले हो सकतें हैं। ऐसा ही आपकी लड़की के साथ हो तो? लेकिन लड़की की जानकारी में उसे देखतें हैं तो नापसंद कतई न करें।

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वह माई

वह माई
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Old Lady

मैं शाम की ट्रेन से चला था, सफर चार घण्टे का था, किन्तु रास्ते में ट्रेन लेट हो गई, सो एक बजे प्रयागराज पहुंचा। स्टेशन से घर तीन किलोमीटर पर है, सोचा था छः बजे चला हूॅ तो दस बजे तक प्रयागराज पहुंच कर साढ़े तक घर पहुंच ही जाऊँगा लेकिन ट्रेन की लेट लतीफी ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा। घर पर केवल बूढ़े माँ-बाप ही रहतें हैं। छोटा भाई दिल्ली में रहता है।पिताजी फोन से रास्ते भर पूछते रहे, "कहाँ पहुंचे हो?"
मैं बताता चला गया लेकिन उन्हें स्टेशन आने से मना करता रहा, "आपको आने की जरूरत नहीं मैं घर आ जाऊँगा।"
स्टेशन उतरा तो देखा तेज बारिश हो रही थी। वैसे तो घर तक रिक्शे आदि हमेशा मिल जाते हैं किन्तु तेज बारिश में कोई जाने को तैयार नहीं हुआ।
"अब क्या करूँ?" मैं सोचने लगा।
इधर पिताजी का फोन आ रहा था,"बारिश बहुत तेज है कैसे आओगे?"
एक बजे रात में भी वे मेरी इंतजार में जाग रहे थे, मैं उनकी आदत जानता हूॅ बहुत जल्दी घबड़ातें हैं, यदि मैं कह देता कि,"स्टेशन पर फँसा हूॅ, "तो निश्चित छाता लेकर मेरा रेन सूट लेकर आ जाते।
क्योंकि वह ७० साल के हैं इसलिए उनको परेशान करना मैंने उचित नहीं समझा, अतः कह दिया, "एक रिक्शा मिल गया है आ रहा हूॅ, उल्टी हवा के कारण रिक्शा धीमा चल रहा है, पहुंचने में कुछ देर होगी।"
जबकि हकीकत में ऐसा कुछ नहीं था, मैं पैदल ही स्टेशन से भीगते हुए निकल पड़ा, काली आधी रात को तेज बारिश और उल्टी हवा भयावह बना रहीं थीं। मैं बुरी तरह भीग गया था, हवा के झोंके से ठंड लग रही थी। एक मकान में बत्ती जलती देखकर दरवाजा खटखटाया तो सुनाई पड़ा, "जो भी हो चले जाओ। मैं जानता हूॅ तुम लोग ऐसे मौसम का नाजायज फायदा उठाते हो।"
मैं आगे बढ़ा, कुछ दूर पर एक झोपड़ी दिखी। याद आया एक बूढ़ी औरत इसमें रहती है, मैं झोपड़ी तक पहुँचा। ठंड से चलना मुश्किल हो गया, मैंने आवाज लगाई तो बूढ़ी औरत की आवाज सुनाई पड़ी, "भइया, कौन हो यहाँ कुछ न मिलेगा"
कहकर उसने दरवाजा खोल दिया। देखते ही बोली, "अरे, तुम तो भीग गये हो शायद ठंड लगी है काँप रहे हो, जल्दी अन्दर आ जाओ, कपड़े उतारकर बदन पोंछ लो पहले और यह कम्बल ओढ़कर बैठ जाओ, तब तक मैं चाय बनाती हूँ।"
कहकर उसने मुझे एक अंगौछा दे दिया। मैंने अन्दर आकर बदन पोंछा और ब्रीफकेस से दूसरा कपड़ा निकाल कर पहन लिया तथा कम्बल ओढ़ लिया। तब तक वह महिला चाय भी ले आयी। गर्मा-गर्म चाय पीकर कुछ राहत मिली और कोई समय होता तो उस झोपड़ी को देखकर मुझे घिन्न आ जाती पर वह झोपड़ी इस समय मेरे लिए राजमहल से कम नहीं थी।
बारिश कम हो गई थी मैं चलने को तैयार हुआ वह औरत बोल पड़ी, "इतनी रात में कहाँ जाओगे? ठंड भी लगी है तुम्हें यहीं सो जाओ, सुबह चले जाना।"
लेकिन मैंने जानता था पिताजी और माँ घबड़ातें होंगे, मोबाइल भी भीग गया था, अतः चलना ही उचित समझा, चलते-चलते उस बूढ़ी औरत को सौ का नोट देने लगा।
तो वह बोली,"बाबू, तुम पैसे वालों की यही आदत खराब है, हर चीज को पैसे से तौलते हो, क्या मैं एक रात के लिए तुम्हारी माँ नहीं हो सकती?"
मेरे पास कोई उत्तर न रहा।

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दहेज प्रथा

  दहेज प्रथा

   

Dowry System


विवाह क्या है?
दों परिवारों, दों संस्कारो, दों विचार धाराओं, दों दिलों, दों सपनों, दों अरमानों आदि का पवित्र मिलन ही तो है।जिसके अंतर्गत पहले आती है, "कुण्डली" शादी से मना करने का अचूक हथियार। कुण्डली में सभी गुण मिल भी गये तो बात अटकेगी दहेज पर, जिसमें लड़के वाले अपनी औलाद का दाम लगातें हैं, वैसे ही जैसे लोग सब्जी का मोल-भाव लगातें हैं, जो अधिक दाम लगायेगा लड़का खरीद लेगा।
माँ-बाप का कहना रहता है, "भाई, हमने लड़का पढ़ाया-लिखाया तो उसका तो खर्च लेंगे ही, अभी एक बेटी ब्याहनी है, उसका खर्च कहाॅ से पूरा करेंगे।"
यह भी खूब रही बेटी इनकी शादी का खर्च लड़के की होने वाली पत्नी के माँ-बाप से ऐंठे, मैंने तो यहाँ तक देखा है कि लड़की के माँ-बाप भी दहेज देने से पीछे नहीं हटते लड़का वाला मना भी कर देगा तो कहेंगे, "भाईसाहब, मेरे दरवाजे की भी शोभा है, मुझे भी दुनिया को दिखाना है नहीं तो सब कहेंगे लड़की को खाली हाथ भेज दिया, आप माँगें या न माँगें हम तो 'यह' देंगे ही।"
इसके बावजूद लड़की वाले कहेंगे, "इतना दे रहा हूॅ बिल्कुल भिखारी हैं लड़के वाले, पेट नहीं भर रहा है उनका।"
लेकिन जब लड़की वाला अपने लड़के की शादी करता है तो यही बात उस पर भी लागू होती है। अपना समय भूलकर लड़का वाला बन जाता है।
मेरे विचार से ऐसा इसलिए है कि माँ-बाप को अपने लड़के पर और लड़के को खुद पर विश्वास नहीं रहता है, वे खुद, जो चीजें दहेज में लड़की वाले से माँग रहें हैं, अपने दम पर उन्हें पूरा कर सकतें हैं।
कभी-कभी लड़की को भी सोचते देखा है कि, "मेरी शादी में पापा यह देंगे ही।" यह पापा की मजबूरी न समझते हुए भी दहेज को बढ़ावा देना ही है।
दहेज माँगने वाले और एक भिखारी में क्या अन्तर है? मैं तो समझता हूॅ कुछ नहीं, भिखारी सड़क पर घूम-घूम कर भीख माँगता है तो दहेज माँगने वाले बड़ी बड़ी अट्टालिकाओं में छुप कर माँगतें हैं।
इस दहेज को रोकना ही है जिसके लिए युवा पीढ़ी को आगे आना होगा। उसे खुद स्पष्ट करना होगा कि,
"वे दहेज की शादी नहीं करेंगे।"

आज के लिए इतना ही...धन्यवाद
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Monday, August 19, 2019

माँ-बाप का दर्द - कविता

                         माँ-बाप का दर्द                       

                   

दिन अच्छे खासे बीत रहे थे, 
एक-दूजे को समझ रहे थे, 
फिर एक दिन ऐसा भी आया, 
हम दोनों का ब्याह हो गया।
उमंगों की डोर पर, 
हम उड़ने से लगे थे, 
कसमें और वादे रोज ही, 
खाते रहते थे।
साथ जियेंगे साथ मरेंगे, 
तुम बिन हम भी न रहेंगे, 
दिन यूं ही बीत रहे थे, 
हँसी खुशी हम दोनो थे।
साथ ही खाते साथ ही पीते, 
सुख-दुख में हम एक ही रहते, 
पत्नी जब भी मायके जाती, 
यह बिछुड़न हमको भारी लगती।
मिल जाने को एक-दूजे से, 
झूठ भी बोलते घर वालों से, 
खून-पसीना एक कर डाला, 
एक घर बना ही डाला।
रहते उसमें हम दोनों थे, 
खाते-पीते मस्त थे दोनों,
नये दो मेहमान घर में आये, 
नन्हें थे पर प्यारे थे।
हम उनमें व्यस्त हो गए, 
तिल-तिल कर वे बढ़ने लगे थे, 
पेट काटकर उन्हें पढ़ाया, 
इंजीनियर और डॉक्टर बनाया।
सोचा अब बहुएं आयेंगी, 
मेरे घर की शान बढ़ेगी, 
देख कर सुन्दर दो परियां,
दोनों की शादी कर डाली।
समय बीता कुछ अच्छा सा, 
फिर एक दिन ऐसा भी आया, 
तू-तू मैं-मैं होने लगी थी, 
दोनों बच्चें लड़ने लगे थे।
मकान जो था हमने बनाया, 
करने लगे उसका बँटवारा, 
कहते ऊपर वाला मैं ले लूंगा, 
नीचे वाला तुमको दूंगा।
हमने उनको खूब समझाया, 
पर उनके कुछ समझ न आया, 
जैसे-तैसे हो गया बँटवारा, 
यह न सोचा माँ-बाप भी रहते।
अब आयी अपनी भी बारी, 
दोनों कहते,"मैं न रखूँगा, 
तनख्वाह मेरी इतनी थोड़ी, 
मुश्किल से परिवार ही चलता।"
किसी तरह सुलह हो गई, 
बाँट लिया फिर हम दोनों को, 
एक कहता,"मैं माँ को लूंगा,"
दूजा कहता,"मैं बाप को लूंगा।"
हम दोनों ने ही तो मिलकर,
पिछले चालीस साल गुजारे,
सुनकर अपना बँटवारा, 
रूह कांप गई हम दोनों की।
बोले,"अब हम न बँटेंगे, 
साथ जियें हैं साथ मरेंगे, 
बीते दिन हम याद करेंगे, 
कैसे-कैसे दिन देंखे हैं।"
दुनिया में वे माँ-बाप धन्य हैं,
जिनकी संतानें नहीं बँटतीं,
भगवान् मेरी संतानों से तो,
अचछा था मुझको संतान न देता।

               
   यादों को समेट लो दिल में
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यादों को समेट लो दिल मेंअपने,
जो कल था वह आज नहीं है,
जो आज है कल न रहेगा,
बीत रहा है एक-एक पल,
एक-एक क्षण,
एक याद छोड़कर चला जा रहा।
रेडियो का जगह ट्रान्सीस्टर आया था,
ट्रान्सीस्टर की जगह टेप रिकॉर्ड ने ली थी,
फिर आई टीवी दुनिया में छा गयी,
अब वह जा रही है तो,
कम्यूटर लुभावन हो गया,
अब लैपटॉप आ गया,
और मोबाइल हर दिल में छा गया।
न जाने क्या-क्या बदल रहा है दुनिया में,
पहले घड़ा था अब फ्रिज आ गया,
चूल्हे और अंगीठी की जगह गैस आ गयी,
वाशिंग मशीन भी घर-घर हो गयी,
साबुन को शैम्पू और सर्फ हटा रहे हैं,
बदल रही है दुनिया,
बदल रहा मनुष्य है,
यादों को समेट लो दिल में,
हर क्षण एक याद छोड़कर चला जा रहा।


एक हवेली की कहानी

                           

                               एक हवेली की कहानी             

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Haveli
                                 

मेरी कालोनी से दों किलोमीटर दूर ठाकुर अजय प्रताप सिंह का मकान था।मकान क्या उसे हवेली कहना उचित रहेगा। आगे बहुत बड़ा सा लाॅन था, उसके बाद पोर्च फिर महलनुमा इमारत, मुझे इमारत की शान कुछ-कुछ याद है, उस समय मैं आठ-दस साल का रहा होऊँगा। ठाकुर साहब का नाम कई किलोमीटर तक मशहूर था और इमारत हवेली के नाम से मशहूर थी। पाँच किलोमीटर दूर से रिक्शे या तांगे वाले हवेली के ही नाम से यात्रियों को उस मोहल्ले तक लाते थे। यदि कहा जाय कि मोहल्ले का नाम कम हवेली का अधिक समझते थे अतिश्योक्ति न होगी,  कहने का मतलब मोहल्ले का नाम ही हवेली हो गया था।पुराने लोग अब भी मोहल्ले को हवेली ही कहतें हैं।
ठाकुर साहब काफी दबंग व्यक्ति थे। हवेली पर नौकर-चाकरों की भीड़ जमा रहती थी, दरबान, माली, रसोइया, जानवर पालने वाले, ड्राइवर आदि सभी तो थे उनके पास। शहर के बड़े-बड़े अधिकारी उनके पास आते थे। कई नेताओं को भी मैं उनके पास हाजिरी लगाते देखा करता था। ठाकुर साहब के तीन लड़के थे अजीत, अमरेन्द्र और अरिदमन प्रताप सिंह। तीनों ही दबंग व्यक्तित्व वाले, तीनों भाइयों में बहुत मेल रहता था। चूंकि एकता में शक्ति होती है इसलिये बड़ी से बड़ी समस्या भी तीनों मिलकर निपटा लेते थे। अमरेन्द्र को स्वछंद जीवन पसंद था अतः उन्होंने शादी नहीं की जबकि अजीत और  अरिदमन की शादी हो गई। ठाकुर साहब जब ७५ साल के थे तो उनकी पत्नी स्वर्ग सिधार गयीं। उसके कुछ दिनों बाद ठाकुर साहब भी बीमार पड़ गये।
सोचा, "अब मेरा भी ठिकाना नहीं कब चलता बनूँ, इसके पहले कि मुझे कुछ हो जाये और तीनों लड़कें जायदाद को लेकर लड़े-झगड़े करें बँटवारा कर दूं?"
अतः तीनों को बुलाकर हवेली तीन हिस्सों में बाँट दी।एक तरफ का हिस्सा अजीत, एक तरफ का अरिदमन तथा बीच का हिस्सा अमरेन्द्र के नाम कर दिया। उन्होंने अपनी मृत्यु का सही ऑकलन किया था। बँटवारे के तीन दिनों बाद वे भी स्वर्ग सिधार गये।तीनों भाई अपने-अपने हिस्सों में रहने लगे। अजीत को जानवरों से विशेष प्रेम रहता था सो शेष दोनों भाइयों ने ठाकुर साहब के सारे जानवर उन्हें ही दे दिये।किन्तु नौकर असमंजस में थे, किसके साथ रहें किसके साथ नहीं, तीनों ही भाई पुराने विश्वसनीय नौकरों को अपने-अपने साथ रखना चाहते थे। अतः पुराने विश्वसनीय नौकरों ने यहाँ नौकरी न करना ही उचित समझा और एक-एक कर दूसरों के घर चले गए। जिसका दोष तीनों भाई एक-दूसरे को देने लगे।धीरे-धीरे यह दोषारोपण खटपट में बदलने लगा और तीनों भाइयों में बोलचाल बन्द होने लगी।
इसी बीच लम्बी बिमारी के बाद अमरेन्द्र प्रताप सिंह भी माँ-बाप के पास पहुंच गए। चूँकि शादी की नहीं थी इसलिये उनकी जायदाद का वारिस कोई न रहा। उनकी सम्पत्ति अपने नाम करवाने के लिये अजीत तथा अरिदमन प्रताप में होड़ मच गयी।एक-दूसरे के दुश्मन बन बैंठे।हालात मार-पीट तक पहुंचने लगी, प्रायः मोहल्ले वाले बीच बचाव करके झगड़ा टाल देते थे।
यह कीड़ा इतना गहराता गया कि एक दिन अजीत प्रताप की प्यारी गाय "श्यामा" मर गई।
उनके नौकर ने बताया,"मरने से दो घण्टे पहले गाय को छोटे मालिक ने रोटी खिलाई थी।"
बस अजीत सिंह के दिमाग में घुस गया,"हो न हो रोटी में ज़हर मिला था।"
एक दिन जमकर झगड़ा हुआ दोनों में, अजीत ने अरिदमन को मर्यादा के खिलाफ माँ-बहन की गाली दे दी। अरिदमन को भी गुस्सा आ गया बोले, "मेरी माँ-बहन तेरी कौन लगती है?"
अजीत गुस्से से लाल-पीले हो गये। लाठी से अरिदमन को घायल कर दिया।अरिदमन आपे से बाहर हो गए घर जाकर बन्दूक लेकर आये फायर झोंक दिया, गोली अजीत के सीने में जा लगी, वह तुरंत ही मर गए, मोहल्ले वालों ने पुलिस को बुला दिया।वह अरिदमन को पकड़ ले गयी, कोर्ट ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई, कारावास के दौरान ही उनकी मृत्यु हो गयी, ठाकुर साहब की हवेली धीरे-धीरे नष्ट होती चली गई, अब तो वह खण्डहर हो गयी है, ठाकुर साहब के वंशज न जाने कहाॅ जा बसे,
लेकिन अमरेन्द्र के हिस्से का बँटवारा न हो सका।

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