Monday, August 19, 2019

एक हवेली की कहानी

                           

                               एक हवेली की कहानी             

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Haveli
                                 

मेरी कालोनी से दों किलोमीटर दूर ठाकुर अजय प्रताप सिंह का मकान था।मकान क्या उसे हवेली कहना उचित रहेगा। आगे बहुत बड़ा सा लाॅन था, उसके बाद पोर्च फिर महलनुमा इमारत, मुझे इमारत की शान कुछ-कुछ याद है, उस समय मैं आठ-दस साल का रहा होऊँगा। ठाकुर साहब का नाम कई किलोमीटर तक मशहूर था और इमारत हवेली के नाम से मशहूर थी। पाँच किलोमीटर दूर से रिक्शे या तांगे वाले हवेली के ही नाम से यात्रियों को उस मोहल्ले तक लाते थे। यदि कहा जाय कि मोहल्ले का नाम कम हवेली का अधिक समझते थे अतिश्योक्ति न होगी,  कहने का मतलब मोहल्ले का नाम ही हवेली हो गया था।पुराने लोग अब भी मोहल्ले को हवेली ही कहतें हैं।
ठाकुर साहब काफी दबंग व्यक्ति थे। हवेली पर नौकर-चाकरों की भीड़ जमा रहती थी, दरबान, माली, रसोइया, जानवर पालने वाले, ड्राइवर आदि सभी तो थे उनके पास। शहर के बड़े-बड़े अधिकारी उनके पास आते थे। कई नेताओं को भी मैं उनके पास हाजिरी लगाते देखा करता था। ठाकुर साहब के तीन लड़के थे अजीत, अमरेन्द्र और अरिदमन प्रताप सिंह। तीनों ही दबंग व्यक्तित्व वाले, तीनों भाइयों में बहुत मेल रहता था। चूंकि एकता में शक्ति होती है इसलिये बड़ी से बड़ी समस्या भी तीनों मिलकर निपटा लेते थे। अमरेन्द्र को स्वछंद जीवन पसंद था अतः उन्होंने शादी नहीं की जबकि अजीत और  अरिदमन की शादी हो गई। ठाकुर साहब जब ७५ साल के थे तो उनकी पत्नी स्वर्ग सिधार गयीं। उसके कुछ दिनों बाद ठाकुर साहब भी बीमार पड़ गये।
सोचा, "अब मेरा भी ठिकाना नहीं कब चलता बनूँ, इसके पहले कि मुझे कुछ हो जाये और तीनों लड़कें जायदाद को लेकर लड़े-झगड़े करें बँटवारा कर दूं?"
अतः तीनों को बुलाकर हवेली तीन हिस्सों में बाँट दी।एक तरफ का हिस्सा अजीत, एक तरफ का अरिदमन तथा बीच का हिस्सा अमरेन्द्र के नाम कर दिया। उन्होंने अपनी मृत्यु का सही ऑकलन किया था। बँटवारे के तीन दिनों बाद वे भी स्वर्ग सिधार गये।तीनों भाई अपने-अपने हिस्सों में रहने लगे। अजीत को जानवरों से विशेष प्रेम रहता था सो शेष दोनों भाइयों ने ठाकुर साहब के सारे जानवर उन्हें ही दे दिये।किन्तु नौकर असमंजस में थे, किसके साथ रहें किसके साथ नहीं, तीनों ही भाई पुराने विश्वसनीय नौकरों को अपने-अपने साथ रखना चाहते थे। अतः पुराने विश्वसनीय नौकरों ने यहाँ नौकरी न करना ही उचित समझा और एक-एक कर दूसरों के घर चले गए। जिसका दोष तीनों भाई एक-दूसरे को देने लगे।धीरे-धीरे यह दोषारोपण खटपट में बदलने लगा और तीनों भाइयों में बोलचाल बन्द होने लगी।
इसी बीच लम्बी बिमारी के बाद अमरेन्द्र प्रताप सिंह भी माँ-बाप के पास पहुंच गए। चूँकि शादी की नहीं थी इसलिये उनकी जायदाद का वारिस कोई न रहा। उनकी सम्पत्ति अपने नाम करवाने के लिये अजीत तथा अरिदमन प्रताप में होड़ मच गयी।एक-दूसरे के दुश्मन बन बैंठे।हालात मार-पीट तक पहुंचने लगी, प्रायः मोहल्ले वाले बीच बचाव करके झगड़ा टाल देते थे।
यह कीड़ा इतना गहराता गया कि एक दिन अजीत प्रताप की प्यारी गाय "श्यामा" मर गई।
उनके नौकर ने बताया,"मरने से दो घण्टे पहले गाय को छोटे मालिक ने रोटी खिलाई थी।"
बस अजीत सिंह के दिमाग में घुस गया,"हो न हो रोटी में ज़हर मिला था।"
एक दिन जमकर झगड़ा हुआ दोनों में, अजीत ने अरिदमन को मर्यादा के खिलाफ माँ-बहन की गाली दे दी। अरिदमन को भी गुस्सा आ गया बोले, "मेरी माँ-बहन तेरी कौन लगती है?"
अजीत गुस्से से लाल-पीले हो गये। लाठी से अरिदमन को घायल कर दिया।अरिदमन आपे से बाहर हो गए घर जाकर बन्दूक लेकर आये फायर झोंक दिया, गोली अजीत के सीने में जा लगी, वह तुरंत ही मर गए, मोहल्ले वालों ने पुलिस को बुला दिया।वह अरिदमन को पकड़ ले गयी, कोर्ट ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई, कारावास के दौरान ही उनकी मृत्यु हो गयी, ठाकुर साहब की हवेली धीरे-धीरे नष्ट होती चली गई, अब तो वह खण्डहर हो गयी है, ठाकुर साहब के वंशज न जाने कहाॅ जा बसे,
लेकिन अमरेन्द्र के हिस्से का बँटवारा न हो सका।

आज के लिए इतना ही...धन्यवाद
अगर आपको यह पोस्ट अच्छी लगी हो तो कृपया कमेंट और शेयर करें... सुधीर श्रीवास्तव

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