Wednesday, July 31, 2019

कविता

जीवन में एक साथी होना तो चाहिए,
जिससे हमारा कुछ छुपा न हो,
हर दुःख दर्द हमारे वह जानता हो,
नस-नस से हमारी वह वाकिफ हो,
यदि कभी दुःख कोई आ भी जाये,
तो,
सर पर हाथ फेरने वाला,
एक साथी जीवन में होना तो चाहिए।
जो भावनाओं को समझता हो हमारी,
हमसे अधिक हमको समझता हो,
जिसको अपना अवलम्ब हम बना सकें,
अपने जीवन का आधार बना सकें,
ऐसा ही,
एक साथी जीवन में होना तो चाहिए।
जिसकी राह हम तका करें,
आने का जिसका इन्तजार किया करें,
चेहरा जिसे देखकर खिल जाये,
मन में उमंगे उठने सी लगें,
ऐसा ही,
एक साथी जीवन में होना तो चाहिए
जो चिन्ता हमारी किया करें,
जिसकी चिन्ता हम किया करें,
दुःख जिसके हम बाँट सकें,
जिसको सुख अपना हम दें सकें,
ऐसा ही,
एक साथी जीवन में होना तो चाहिए।

प्रार्थना

ऊँ श्री विष्णुयाय नमः
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जय श्री हरि

डूब रहा मैं भवसागर में,
भवसागर यह पार करा दो स्वामी,
बड़ा विकट यह भवसागर है,
तुम ही एक खेवनहार हमारे हो।
कष्टों की लहरें आतीं हैं,
दुःखों का ज्वार सा आता है,
तुम ही इसके कारक हो,
तुम ही तारणहार हो स्वामी।
रावण से पृथ्वी डोली थी,
राम बनकर तुम आये थे,
कंस का अंत करने को,
कृष्ण बनकर तुम आये थे स्वामी।
दुष्ट जब नृत्य करते धरती पर,
तुम रूप बदल-बदल कर आते हो,
करके संहार तुम दुष्टों का,
चले क्यों जाते हो भगवन्?

Tuesday, July 30, 2019

पिताजी की सीख


पिताजी की सीख




यूं तो मेरे पिताजी थोड़ा रिजर्व टाइप के आदमी थे कम बोलने वाले। वैसे भी वे कुछ कम सुनते थे इसलिए परिवार वाले उनसे कम ही बोलते थे। कभी-कभी किसी मतलब के प्रश्न का उत्तर कुछ और ही दे दिया करते थे जिसके कारण वे उपहास का विषय बन जाया करते थे तथा हम लोगों की शर्मिंदगी व खिसियाहट का। हम लाख कहते हियरिंग एड लगवा लो, लेकिन उन्हें अच्छा नहीं लगता था, बन ठन कर या सज-धज कर रहने का भी उन्हें शौक नहीं था, साधारण ही रहते थे। हाँ, हम दोनों भाइयों को सजा-धजा देखने का उन्हें बहुत शौक था।
नौकरी में थे, तो कोई बात नहीं थी। जब रिटायर हो गए तो मुझे गृहस्थी का पाठ पढ़ाने लगे,"ऐसा करो, वैसा करो, खूब मौज मस्ती करो, खूब खाओ-पीओ लेकिन चार पैसे बचाकर चलना। जिन्दगी लम्बी है, जिम्मेदारियां बहुत आयेंगी, निभाना होगा। तुम्हारी एक लड़की भी है उसकी पढ़ाई व शादी की चिन्ता अभी से करना शुरू कर दो।"
मेरी पत्नी खर्चीली है सो पिताजी की बातें उसे पसंद नहीं आतीं थीं।
 उसका विचार था, "खाओ-पीओ मौज करो समय पड़ने पर सब देखा जायेगा।"
उधर पिताजी का भाषण इधर पत्नी की बड़बड़ाहट, "कोई काम तो इन्हें है नहीं, केवल लेक्चर देने के,  कान पक गए लेक्चर सुनते-सुनते।" मैं खिसिया सा जाता था।
पिताजी ने एक दिन फिर समझाना शुरू किया, कुछ देर मैं सुनता रहा कुछ न बोल।
फिर अचानक बोल पड़ा, "पापा, मैं अब बच्चा नहीं हूॅ, बड़ा हो गया हूॅ, सबकुछ समझता हूॅ।"
पिताजी अवाक् रह गए, बस इतना ही कहा, "अरे, मैं तो भूल ही गया था, हाँ बेटा, तुम वाकई बहुत बड़े हो गए हो।"
उसके बाद पिताजी ने हमेशा के लिए चुप्पी साध ली, उन्हें पढ़ने तथा लिखने का शौक था अतः उसी में व्यस्त रहते या मेरी बेटी के साथ खेलते रहते।
एक दिन पिताजी हम सबको छोड़ कर चले गए, दिन बीतते गये, मेरी बेटी शादी लायक हो गयी, मैं उसकी शादी के लिए दौड़े-धूप करने लगा, लेकिन लड़के वालों के भाव सुनकर हिम्मत हारने लगता। पैसा जिन्दगी भर कमाया जरूर, लेकिन खाने-पीने मौज-मस्ती में उड़ा दिये, पैसे बहुत ज्यादा नहीं हैं मेरे पास।यदि पिताजी की बातें सुनता और शुरू से पैसे बचाता तो आज यह हालत न होती।
पिताजी की जो बातें मुझे भाषण लगतीं थीं अब वे हथौड़े की तरह मुझपर चोट कर रहीं हैं।
लेकिन,
"अब पछताये होत क्या।
जब चिड़िया चुग गयी खेत।"

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प्रार्थना

ऊँ श्री सरस्वती देवी माताय नमः
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जय माँ सरस्वती

मैं आया दरबार तुम्हारे,
महामूर्ख अज्ञानी हूॅ,
निर्बुद्धि घमण्ड से चूर मैं माता,
शरण तुम्हारी आया हूॅ।
विद्या क्या है कभी न समझा,
बुद्धि भी कैसे आयेगी,
एक सहारा तुम ही हो माता,
हाथ फेर दो मेरे सर पर।
बुद्धि हीनता दूर करो माँ,
अज्ञान मेरा तुम हर लो,
ज्ञान का एक दीपक जला दो,
तन-मन मेरा उज्जवल हो जाये।
सौम्य रूप तुम्हारा अति प्यारा है,
वीणा की झंकार अति मृदुल है,
उच्छृंखल मैं बहुत हूॅ माता,
थोड़ी सौम्यता मुझे तुम दे दो,
वाणी भी मेरी अति कर्कश है,
वीणा की झंकार इसे तुम दे दो,
मैं आया दरबार तुम्हारे,
महामूर्ख अज्ञानी हूॅ।।

प्रार्थना

जय श्री राम
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श्री हनुमते नमः

एक हाथ में गदा है उनके,
एक हाथ पर सुमेर उठाये,
चले हनुमान संजीवनी लेकर,
लक्ष्मण के प्राण बचाने हैं।
लंका उस पार मूर्छित लक्ष्मण हैं,
श्री राम व्याकुल बहुत अधिक हैं,
अगर लक्ष्मण जीवित न होंगे,
तो दुनिया को क्या मुंह दिखाऊंगा?
सभी वानर चिन्तित वहाॅ पर,
श्री राम को सांत्वना दे रहे,
हनुमान की सभी प्रतीक्षा करते थे,
लेकिन उनके आने तक शंका बनी हुई है।
देख हनुमन् को आता हुआ,
हर्षित हो गयी वानर सेना,
पवनसुत हनुमान की जय हो,
अंजनि पुत्र हनुमान की जय हो,
उद्घोष किया तब सबने मिलकर।।

Thursday, July 11, 2019

जब माँ घर आयी


जब माँ घर आयी


माँ गांव से शहर मेरे घर आईं थीं, आने को तैयार नहीं थीं पर मेरे और बच्चों के कहने पर आईं, वह भी जब मैं लेने गया। गांव की बूढ़ी महिला जमाने के हिसाब से पिछड़ी हुई और मेरी पत्नी शहर की, सो, माँ उसे पसंद नहीं आतीं थीं। उसने माँ को लाने में बहुत आनाकानी की थी, लेकिन मेरे और बच्चों की जिद के कारण अनमने मन से तैयार हुई थी।माँ ने आते ही कहा, "बेटा, बहू  दुबली हो गई है, इसका ध्यान नहीं देते क्या?"
मैंने कहा, "नहीं माँ ऐसी बात तो नहीं, हाँ इसे मेहनत अधिक करनी पड़ती है। सुबह बच्चों को स्कूल और मुझे ऑफिस भेजना. फिर खुद तैयार होकर अपने ऑफिस जाना होता है, शाम को तो हम दोनो मिलकर काम निपटा लेते हैं पर सुबह नही, माँ ने सब जान लिया। दूसरे दिन वह खुद रसोई में जा घुसीं, अभी हम सब सो ही रहे थे।बर्तनों की खछ़खड़ाहट से नींद टूटी तो देखा माँ नाश्ता तथा भोजन तैयार कर रहीं थीं।
पत्नी बड़बड़ाई, "लो,मधुर संगीत सुनो, नींद तोड़ प्यारा संगीत।"
मैंने कहा, "अरे माँ, क्या करती हो?"
माँ कुछ बोलीं नहीं,अपने काम में लगी रहीं।
उस दिन बहुत दिन बाद माँ के हाथ का 
स्वादिष्ट नाश्ता व भोजन मिला था।बच्चों ने भी पसंद किया, छोटा बोला, "दादी अब आप कहीं मत जाइयेगा, इतना अच्छा खाना आप बनातीं हैं, पहली बार खा रहा हूॅ।"
माँ के चेहरे पर एक संतोष था, पत्नी के चेहरे पर कुढ़न और मेरी ऑखों में ऑसू।
कुछ दिन ठीक-ठाक रहा फिर पत्नी का व्यवहार बदलने लगा, माँ को ओछी निगाह से देखने लगी बात-बात पर चिढ़ने लगीं, बच्चों को कुछ अधिक ही डाँट-डपट करने लगी, मुझे भी नहीं छोड़ती। माँ सब देख सुन रही थीं, लेकिन कुछ बोलती नहीं थीं।
एक दिन मैं ऑफिस से आया तो देखा माँ पत्नी का सर गोद में रखकर उसका सर दबा रहीं थीं, बिल्कुल अपनी बेटी की तरह, मेरे कुछ बोलने से पहले ही माँ बोल पड़ीं, "बहू का बिलकुल ध्यान नहीं रखते हो तुम, बेचारी का सर दर्द कर रहा है।"
मैं बोला, "माँ,अभी दवा लाता हूॅ, ठीक हो जाएगा।"
माँ ने कहा, "आओ, यहाँ बैठो मेरे पास।"
मैं बैठ गया, मेरी गोद में पत्नी का सर रखकर बोलीं, "बेटा मैं गाँव की अनपढ़ गँवार औरत जरूर हूॅ, लेकिन जिन्दगी का अनुभव जितना मुझे है तुम लोगों को नहीं, हर मर्ज की दवा दवा नहीं होती एक प्यारा सा हल्का स्पर्श पति-पत्नी के सारे मर्ज दूर कर देता है।"
इतना कहकर माँ चाय बनाने चलीं गयीं, आज मैंने देखा पत्नी की ऑखों के कोरों से ऑसू बह रहे थे और मेरे हाथ खुद ब खुद उसके सर को सहला रहे थे।


आज के लिए इतना ही...धन्यवाद
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Tuesday, July 9, 2019

मेरे पिताजी का मेरा भविष्य बनाने में सहयोग

मेरे पिताजी का मेरा भविष्य बनाने में सहयोग 


आज मैं जैसा भी हूॅ, जो भी हूॅ, अपने पिताजी के कारण हूॅ। जब कभी बहकता था, पिताजी संभालते थे। एक बार का किस्सा बताता हूॅ, मैं कक्षा आठ में पढ़ता था और मुझे पान खाने की आदत पड़ गई थी। एक दिन पैसे नहीं थे, पिता जी के पैण्ट की पाॅकेट टटोली बीस पैसे मिले उसमें, मैंने पाँच पैसे का एक सिक्का निकाल लिया। उस समय पाँच पैसे की बहुत कीमत होती थी। पिताजी चारपाई पर लेटे ऑख बन्द किये परन्तु तिरछी नज़रों से सब देख रहे थे, पर बोला कुछ नहीं उन्होंने। मैं पान खाकर आधे घंटे बाद वापस आया, पिताजी को वैसे ही सोते देखा, कुछ देर बाद उन्होंने बुलाकर कहा, "बेटा, देखो मेरी पैण्ट की जेब में बीस पैसे हैं, तुमको पैसे दिये बहुत दिन हो गए पांच पैसे तुम ले लो। "मैंने अन्जान बनकर पैण्ट की पाॅकेट में हाथ डालकर पाँच पैसे और निकाल लिये, तब पिताजी ने पूछा, "अब कितने पैसे बचें हैं बेटा?"
मैं जानता तो था ही की दस पैसे हैं, फिर भी पाॅकेट में हाथ डालकर बोला, "दस" पिताजी बोले, "नहीं, पन्द्रह होंगे बीस थे, पाँच तुमको दिये, तो पन्द्रह होने चाहिए पाँच कहाँ चले जायेंगे?" अब तो मेरी  हलात ख़राब समझ गया, चुराये पाँच पैसे के सिक्के का राज खुलने वाला है, फिर भी गब्बर बनकर बोला, "नहीं अभी-अभी तो आपने पाॅकेट दिखवाई है, पन्द्रह पैसे ही तो थे। पिताजी बोले, "अच्छा दरवाजा अन्दर से बन्द कर दो नींद आ रही है मुझे, सोने दो।" मैंने दरवाजा अन्दर से बन्द कर दिया,उसके बाद?
उसके बाद, पिताजी ने बगल से छड़ी उठाई, जो पहले से उन्होंने छुपा कर रखी थी, बन्द कमरे में, मैं और वे, उनके हाथ में छड़ी अंदाज लगाइए क्या हुआ होगा। दे दनादन दे दनादन, पिताजी ने मुझको पच्चीसों छड़ी मारी। बोलते रहे, "पैसा भी चुराता है और झूठ भी बोलता है।" उस समय पिताजी दुश्मन लग रहे थे पर अब उनको धन्य समझता हूॅ, उस दिन के बाद से मैंने चोरी नहीं की और मैं चोर बनने से बच गया पान तो भूल ही गया। कभी कभी पत्नी के पैसे मौका पाकर उड़ा देता हूॅ।
भाई,इतना तो चलता ही है ना?

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पिताजी का त्याग


पिताजी का त्याग


बात उन दिनों की है, जब मैने अपनी नयी नयी नौकरी शुरू ही की थी, शुरुवाती नौकरी थी, तो पैसे ज्यादा नहीं मिला करते थे, गुजारे के लिए घर से भी पैसे लेने पड़ जाते थे, जैसे तैसे एक महीने का गुजरा होता था| हालात ऐसे थे कि तीन दो शर्ट और दो पैंट और एक जोड़ी घिसे हुए जूते को बदल बदल कर रोजाना एक साल ऑफिस गया था, शर्म भी आती थी, लेकिन घर से पैसे मांगने की हिम्मत न होती थी और पिता जी का रिटायरमेंट भी पास आ चूका था, तो जैसे तैसे बस गुजारा कर रहा था | जन्माष्टमी की छुट्टियाँ हुयी थी, दो दिनों की सोचा घर हो लूं, वैसे भी होली के बाद से जाना न हो पाया था | 
तो बस ऑफिस का काम ख़त्म करके, रात की ट्रैन पकड़ा और सुबह घर पे पहुँच गया | बरसात का मौसम था सो बरसात होती रहती थी।पिताजी का ऑफिस दूर था तो उन्हें सुबह ही निकलना पड़ता था, पिताजी मेरी हर जरूरत को बिना कहे ही जान लेते थेमुझसे भी अधिक मेरी आवश्यकताओं को समझते थेपुराने कपड़े जितना छुपाऊँ वे जान जाते थेमोजे-जूते कितना भी छुपाऊँ पर उनकी नजरों से छुप नहीं पाते, शाम को पिताजी घर पे आये चाय-पानी पीते हुए  दिल्ली  के हालात के बारे में पूछा, मैंने भी अपने हालात को छुपाते हुए दिल्ली के बारे में सब बता डाला, पर कहा जाता है न, बाप तो बाप ही होता है, उनकी नज़रों से बचना मुश्किल था और उन्होंने बातो बातो में मेरी तंगहाली का अंदाज़ा लगा लिया और सुबह ऑफिस जाते हुए माँ को पैसे देते हुए बोले, "उसके लिए जूते खरीदवा देना आज" माँ ने मुझे जूतों के पैसे दिए और मैं दिन मे नये जूते ले आया | ऑफिस से पिताजी आये तो बरसात हो रही थी, पानी से तरबतर थे, उन्हें ठंड भी लग गयी थी, परन्तु आते ही पूछा, "जूते लाये?"  मैं भाव विभोर हो गया, सोचा इस हालत में भी इन्हें मेरी ही चिन्ता है। हालाँकि उन्हें रेन सूट लेना चाहिए था पर पिताजी ने अपनी चिन्ता नहीं की, मैंने भी सोचा आगे से मैं अपनी आवश्यकता से पहले पिताजी की चिन्ता करूँगा।

आज के लिए इतना ही...धन्यवाद
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Monday, July 8, 2019

वह कुत्ता या वे कुत्ते?


वह कुत्ता या वे कुत्ते?


एक दिन की बात बताऊँ, मैं कहीं को जा रहा था, कुछ सोचते - कुछ विचारते, लेकिन क्या? ये याद नहीं है। बस चला जा रहा था, न कोई मेरे साथ था, न मैं किसी से बोल रहा था, बस लोगों को आते-जाते देख रहा था। मैंने देखा एक आवारा गली का कुत्ता, सड़क किनारे बैठा हुआ था, वह भी बिल्कुल चुपचाप बैठा, लोगों को आते-जाते देख रहा था और जीभ लपलपा कर हाँफ रहा था।
मेरे सामने चार लड़के अप टू डेट से हँसते-बोलते शोर मचाते चले आ रहे थे, कुछ पढ़े-लिखे कुछ आवारा लगते थे, फब्तियां कसते लड़कियों पर आपस में ही हँस रहे थे।जब वे नजदीक आ गये, एक लड़के ने उस कुत्ते को, जोरदार एक लात मार दी, वह कुत्ता काँय-काँय करके चौंक पड़ा, पर उसका एक दाँत लड़के के पैर में लग गया था। बस फिर क्या था, दो लड़के कुत्ते के पीछे दौड़े, और एक उस लड़के की देखभाल करने लगा था। कुत्ता था, सरपट भाग कर बहुत दूर निकल गया था। वापस आकर वे दोनों बोले, "भाग गया, साला, नहीं तो साले की खैर नहीं थी" मैं तमाशा देख रहा था, रूक भी गया था, भीड़ जुटने लगी थी, और मैं सोचने लगा, आखिर उसे कुत्ता कहूँ, या इन्हें कुत्ते कहूँ। जब मैं कुछ समझ न पाया, आगे को चलता बना।
क्या आप बता सकते है की कुत्ता किसे कहा जाये?

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