Monday, August 12, 2019

मेरी माँ

मैं एक साधारण मीडियम क्लास के परिवार का सदस्य हूॅ।मेरी माँ गाँव की सीधी-सादी महिला थीं।कोई कुछ कह भी देता था चुप ही रहतीं थीं जबाव न देकर रोने लगतीं थीं।छः साल पहले जब मैं  ५४ वर्ष का था उनका देहांत हो गया।यकीन मानिए मैंने इन चौव्वन सालों उनकी तेज आवाज नहीं सुनी न ही किसी से उनको लड़ते देखा।मेरे चाचा रहें हों या मेरी बुआ सबको इज्ज़त देतीं थीं।उनके सीधे पन का एक किस्सा सुनाता हूॅ,उन दिनों मेरे चाचाजी किसी बात पर माँ से नाराज चल रहे थे।चाचा को सुबह छः बजे ही काम पर जाना होता था क्वांरे थे।हम लोगों के साथ ही रहते थे सो माँ ने उनके लिए नाश्ता बनाया जिसे गुस्से में वे बिना खाये ही चले गए।माँ कुछ न बोंली बस रोने लगीं।पिताजी जाग गये थे यह सब देखकर माँ से बोले,"मत बनाया करो नाश्ता उसके लिए जब नहीं खाता है तो क्यों बनाती हो?"
माँ ने कहा,"आप शान्त रहिये यह मेरे और उनके बीच की बात है देवर और भाभी के बीच में आप कहाँ आ गये।नाश्ता तो मैं बनाऊँगीं यह मेरा फर्ज है।वे नहीं खातें हैं उसकी इच्छा।"ऐसी माँ थीं मेरी।
सुबह उठकर घर में झाड़ू पोछा लगाने के बाद स्नान तब पूजा उसके बाद रसोई में।सच कहता हूॅ उनका नहाना कोई जान ही नहीं पाता था।पूजा में वह भजन-कीर्तन आदि करतीं थीं अतः उनके कारण ही मुझे राम चरित मानस की कई चौपाइयां,हनुमान चालीसा आदि याद हो गयीं सुन-सुनकर।दोपहर के खाने के बाद स्कूल डायरी खोल कर होमवर्क पूरा करा देतीं।मैं पढ़ने में बहुत तेज तो था नहीं लेकिन माँ के कारण कभी अध्यापकों से डाँट या मार भी नहीं खाता था।माँ ने मुझे अच्छे ही गुण दिए किन्तु अफसोस यही रहा कि जब माँ को मेरी जरूरत पड़ी मेरी नौकरी बाहर लग गयी।मुझे लगता है कि मैं माँ के लिये कुछ न कर पाया।जिसकी कसक जवानी के जोश में जवान अवस्था में नहीं हुई।लेकिन आज इस अवस्था में जब मैं खुद साठ साल का हो रहा हूॅ और अपना भूत देखता हूॅ तो होती है।मेरे अन्दर जो भी संस्कार हैं माँ-बाप के ही हैं।मैं जो कुछ भी हूॅ उन्हीं के कारण हूॅ।
बस सबसे यही विनती करता हूॅ कि माँ-बाप को मत भूलिये।समय रहते अपना कर्तव्य उनके प्रति निभा लीजिये नहीं तो बाद में पछतावे के अलावा कुछ न हाथ लगेगा।

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